बुधवार, 12 नवंबर 2008

दोहा पंचामृत

जिसकी-जिसकी पीठ पर, पड़ी समय की मार।
दर- दर ढूढे जिंदगी, करता चीख-पुकार।


पग- पग पर फैला यहाँ, ईश्वर का विस्तार।
छोटी-छोटी आंख में, सपनों का संसार।

रिश्ते धरती की तरह, घूम रहे हैं गोल।
कब किससे मिलना पड़े, बोलो मीठे बोल।

सड़क कहीं जाती नहीं, जाता है इंसान।
बिना सड़क के जो गए, होते गए महान।

सिंहासन कितने हिले, गिरे कई प्रासाद।
दायर जब करना पडा, आहों को प्रतिवाद।
  • ओम द्विवेदी

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

दोहा त्रिशूल

भिखमंगे से आ गए, कल तक जो थे नाथ।
बना दिया है वोट ने, जनम - जनम का साथ।

जनता आंसू खून के, रोई सालोंसाल।

पड़ा वोट का काम तो, लेकर चले रुमाल।

घूर- घूर कर देखते, इन्हें गांव के लोग।

पाँच साल के लिए फिर, होना वही वियोग।

  • ओम द्विवेदी

बुधवार, 5 नवंबर 2008

खतरनाक संकेत

मालेगाँव ब्लास्ट मामले में सेना के कर्नल का गिरफ्तार होना भयावह भविष्य की ओर संकेत करता है। इस्लामी दहशत के खिलाफ सरकारों का मौन और टालने की प्रवित्ति ने हिंदू मानस को झकझोरना शुरू कर दिया है। यह चिंगारी किस हद तक भीतर-भीतर सुलग रही है, इसका अंदाजा इस एक घटना से लगाया जा सकता है।

सेना के जिन जवानों को देशभक्ति और देश पर मर मिटने के लिए जाना जाता है, उसका नाम विध्वंश के साथ जुड़ने का मतलब है कि भारतीय संविधान और दिखावटी भाईचारे के खिलाफ बगावत शुरू हो गई है। धर्म आधारित राज्य बनाने का पांचजन्य कभी भी सुने दे सकता है।

चुनावों में धर्म और जाति के आधार पर टिकट बांटने वालों, परदे के पीछे से देश की संसद और विधानसभाओं को दंगों की चौपाटी बनाने वालों तथा समाज में खुलेआम हिंदू- मुसलमान का जहर घोलने वालों के खिलाफ कभी भी फूट पड़ने वाला ज्वालामुखी है यह।

इस्लामी आतंकवाद का मैदानी जवाब देने के लिए हिंदू आतंकवाद की पुख्ता शुरुआत है यह। सेना में राष्ट्रवादी सोच की राजनीतिक हवा का प्रवेश है।

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की तरह हमारी सेना को भी धर्म और सत्ता की परवाह हो, इसके पहले जनता और नेता दोनों की आँख खुलनी चाहिए। जिस भाईचारे और नैतिक मूल्यों को भाषणों और किताबों की शोभा बना दिया गया है, उसे अमल में भी लाना होगा। प्रार्थना और अजान को गले मिलना होगा। लाल और हरे रंग का दंगा कराने वालों सावधान! ब्लास्ट तुम्हारे घर में भी हो सकता है।

शनिवार, 1 नवंबर 2008

सन्नाटे की डायरी

कई दिनों से आसपास सन्नाटा पसरा हुआ है। चारों ओर भीड़ है, शोर है, रिश्ते हैं, आदमी हैं, कुदरत है, लेकिन उनसे तादात्म्य बनाने वाला बोध शायद कहीं अनुपस्थित है। कोई भी दुर्घटना दिल को ऐसा नहीं हिलाती कि आंखों से आंसुओं के बादल झर पड़ें, कोई भी खुशी इतना नहीं गुगुदाती की होठों से हँसी के सोते फूट पड़ें, कोई भी बात भीतर तक ऐसी नहीं चुभती कि आंखों में खून उतर आए।

कहीं यह आदमी से पत्थर में बदलने कि शुरुआत तो नहीं ?

कई दिन हो गए आँखें केवल दृश्य देखती हैं, कई दिन हो गए कान केवल शब्द सुनते हैं, कई दिन हुए नाक का काम केवल साँस लेना रह गया है, जिह्वा केवल स्वाद ले रही है, हाथ - पाँव केवल चल रहे हैं।

कई दिनों से केवल मनुष्य होने का भ्रम शेष रह गया है।

ये उदासी आख़िर कैसे बुनती है सन्नाटा, आख़िर संवेदनाओं को कैसे खाता है भीतर का शोर, जीवन का सारा उत्साह, इतना सारा प्यार कैसे एक शून्य में तब्दील हो जाता है।