मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

इस चुनाव का चेहरा

एक चरण के लोकसभा चुनाव हो गए, दूसरे चरण के कल होने हैं। तीसरा चरण कुछ दूर है। इन दिनों हर कहीं केवल चुनाव की चर्चा और व्यस्तता है। सारा प्रशासनिक अमला चुनाव में व्यस्त, नेता चुनाव में व्यस्त, गुंडे-अपराधी चुनाव में व्यस्त, मीडिया चुनाव में व्यस्त, बाजार चुनाव में व्यस्त। इस व्यस्तता से फिर एक बार निकलेंगे कुछ सांसद और पांच साल तक संसद में बैठकर कुतरेंगे इस देश का भविष्य।

यह चुनाव कई मायनों में पिछले चुनावों से अलग है। इस चुनाव में कोई लहर नहीं है। कोई भी दल न तो लहर पर बैठा है और न ही लहर के खिलाफ अपनी नाव चला रहा है। इस चुनाव में कोई मुद्दा भी नहीं है। महंगाई और आर्थिक मंदी से देश की कमर टूट रही है, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर बातचीत नहीं करना चाहता। विकास के नारे इतने अमूर्त हैं कि उन्हें समझना और उन पर अमल दोनों पहेली है। साम्प्रदायिकता और जातीयता का खून हर राजनीतिक दल के रगों में दौड़ रहा है, लेकिन व्यक्त होने के लिए आवरण की तलाश करता है। आतंकवाद के नाम पर सभी दल एक-दूसरे को नंगा करने तक ही सीमित हैं।

मुद्दों की बजाय व्यक्तिगत आक्षेपों और अमर्यादित भाषा के लिए भी यह चुनाव पिछले चुनावों से अलग है। अपराधियों के चेहरे भले ही ज्यादा न दिखाई दे रहे हों लेकिन अपराधियों की भाषा नेताओं और उम्मीदवारों की जुबान पर है। भाजपा की युवा पीढ़ी अगर वोट के लिए कत्लेआम की भाषा का इस्तेमाल कर रही है, तो बिहार के क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप जल्लादों की भाषा बोल रहे हैं। कांग्रेस के तेवरों में कूटनीति दिखाई दे रही है।

नामांकन दाखिल करते समय उम्मीदवारों ने जिस तरह से अपनी आय-व्यय का ब्यौरा दिया है उससे पता चलता है कि इस गरीब देश पर राज करने जा रहे नेताओं के पास कितनी अकूत संपत्ति है और उन्हें जनता की याद चुनाव के समय किस तरह आती है। सारे नेता मिलकर भारत जैसा देश खरीद लें। इसका दूसरा पहलू देखें तो सबने मिलकर इस देश को इतना लूटा है कि देश तकरीबन इनके हाथों लुट चुका है। जिस संपत्ति का ब्यौरा उन्होंने दिया है, वह किसी और देश से थोड़ी आई है। ये कुबेर संसद पहुंचकर कंगालों का दर्द समझेंगे।

पिछले सभी चुनावों की तरह इस चुनाव में भी एक समानता यह है कि जनता मतदाता है और अपना दुर्भाग्य उसे फिर चुनना है।