मंगलवार, 25 अगस्त 2009

व्यंग्य-वो आए थे

वो दिखाने के लिए ही आए थे...आपने भी देखा होगा। क्या रूप-रंग था...क्या लाव-लश्कर... क्या संगी-साथी थे... क्या अदा थी... चेहरे पर विराजी मुस्कराहट का तो कहना ही क्या?

उनके व्याकरण में लोकतंत्र है और आचरण में राजतंत्र। उनका शासन भले दुःशासन का हो मगर सिहांसन बहुत महान है। साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, इतिहासकार और महान से महान सैनिक उनके सिंहासन में कठपुतलियां बनकर जड़ित हैं। उनका बोलना समाचार है और उनका निर्णय जनता का भाग्य। वे कुंदन की तरह दमकते रहते हैं। उनकी प्रजा भले ही जवानी में बूढ़ी दिखाई दे, लेकिन वे बुढ़ापे में भी खासे जवान दिखाई देते हैं। वे जहां से भी निकलते हैं अपने आप तोरणद्वार बन जाते हैं, पुष्पों के हार उनके गले में समर्पित हो जाते हैं, लोग चरणों में लोट जाते हैं। ...वही आए थे।
वे शांतिप्रिय हैं। इतने अधिक शांतिप्रिय कि जो शांति के पक्ष में नहीं हैं उनका जीना मुश्किल कर देते हैं। शांति की मुखालफत करने वालों की बहू-बेटियों का अपहरण हो सकता है, मारने की सुपारी मिल सकती है और अंततः फांॅसी की सजा भी। वे शांति की परिभाषाएं बनाते हैं और उसके खिलाफ एक शब्द भी सुनना नहीं चाहते। शांति स्थापना के लिए ही वे अपने साम्राज्य का विस्तार हर हालत में दिग-दिगांतर तक करना चाहते हैं।

उनके लिए प्रजा और जनता एक ही है। वोट लेने तक प्रजा को जनता मानते हैं और वोट लेने के बाद जनता को प्रजा मानने लगते हैं। वे प्रजा के पालनहार हैं। इसीलिए नए-नए कारखाने खोलते हैं और उसका उत्पाद प्रजा को बेचते हैं। प्रजा को रोटी, कपड़ा और मकान देने के लिए इतने मधुर-मधुर नारे गढ़ते हैं कि प्रजा रोटी खाने की बजाए रोटी गाने लगती है। उन्हें यह अच्छी तरह ज्ञात है कि वे जहां से गुजरते हैं, वहां प्रजा की भीड़ इकठ्ठा हो जाती है। इसलिए वे पहले से लोगों का आना-जाना रुकवा देते हैं। स्कूल, कॉलेज, दुकानें बंद करवा देते हैं। उस दिन उनकी सवारी के अलावा किसी और की सवारी उस राह से नहीं गुजरती। उस दिन शहर में चोरी डकैती नहीं होती, डॉक्टर कहते हैं कि कोई बीमार नहीं होता। पुलिस किसी और को नहीं पकड़ती केवल शांति के दुश्मनों को जेल में ठूसती है। जिस दिन वे आते हैं शहर में श्मशान जैसी शांति रहती है। ...वही आए थे।

वे न्यायकर्ता हैं। जिसे न्याय नहीं चाहिए उसे भी देते हैं। न्याय देने का उनका तरीका भी निराला है। चोर से चोरी करवाते हैं और पुलिस से पकड़वाते हैं। चोर को भी रोजगार और पुलिस को भी। वे बंदर की तरह बिल्लियों को न्याय देते हैं। एक रोटी के लिए जब बिल्लियां आपस में लड़ती हैं तो वे न्याय की तुला लेकर बैठ जाते हैं और बराबर करने के चक्कर में पूरी रोटी गपक जाते हैं। बिल्लियों का झगड़ा वे इसी तरह शांत कराते हैं।

वे सदा से उद्घारक हैं। सभी का उद्घार करते हैं। देश का उद्घार करने के लिए संसद में जाते हैं, मूर्तियों का उद्घार करने के लिए अनावरण समारोहों में और ईश्वरों का उद्घार करने के लिए मंदिरों-मस्जिदों में। वे उद्घार यात्राएं करते हैं और उद्घार आंदोलन चलाते हैं। बड़े-बड़े महापुरुष उनकी प्रतीक्षा में वर्षों से मूर्ति बने खड़े हैं।

वे मानवता के सबसे बड़े पुजारी हैं। 'जिओ और जीने दो' का सनातन धर्म इनके रक्त में घुला हुआ है। जब सरकार में रहते हैं तो खूब खाते हैं और जब सरकार में नहीं होते तो खाने देते हैं। सरकार में रहते हुए जब सभाओं में जाते हैं तो जनता को 'डकार' सुनाते हैं और जब विपक्ष में रहते हैं तो 'क्रांति' का मंत्र फूंकते हैं। जनता डकार और क्रांति दोनों को एक ही समझती है। वह वर्षों से उन्हें इसी तरह सुनती आ रही है।

उन्हें दूसरे धर्म के वोट और चंदे पसंद हैं, लेकिन लोग नहीं। चंदे और वोट गुप्तदान हैं और गुप्तदान लेने में वे नीति-अनीति का भेद नहीं करते। वे रिश्वत को भी दान मानते हैं और दान को गुप्त रखने में यकीन करते हैं। उनका मानना है कि उन्होंने ही देश को आजाद करवाया है और यदि वे नहीं होते तो देश अब तक गुलाम हो गया होता। वे जब तक जीते हैं तब तक देश की छाती पर तने रहते हैं और जब मर जाते हैं तो देश का झंडा अपनी छाती पर तान लेते हैं। जीते-मरते सेना से सलामी लेते हैं। वे हर हालत में महान हैं। ...वही आए थे।

बुधवार, 10 जून 2009

हां! मैने भी हबीबजी के साथ काम किया है


१९९७ का अगस्त महीना। हबीब तनवीर रंगमंच में किसी देव पुरुष के रूप में जाने जाते थे। सारी दुनिया में उनकी ख्याति थी। दिल्ली में नया थियेटर चला रहा थे। उनके नाटकों के प्रदर्शन देश-विदेश में हो रहे थे। फिल्मों में काम कर चुके थे। तमाम राष्ट्रीय सम्मान उन्हें मिल चुके थे। हर छोटा-बड़ा कलाकार उनके साथ काम करना चाहता था। मैं उन दिनों रंगमंच का विद्यार्थी था और निश्चित रूप से उनके साथ काम करके खुद को कुछ बड़ा मानना चाहता था। कुछ सीखना चाहता था और उनके सामने अपनी प्रतिभा को सिद्घ करना चाहता था। प्रसिद्घ आलोचक डॉ. कमला प्रसाद रीवा के अवधेश प्रताप सिंह विवि में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे और उन दिनों इप्टा में हमारे संरक्षक भी। उन्होंने बताया कि उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र की कार्यशाला में हबीबजी आ रहे हैं और ४५ दिन वे रीवा में रहेंगे और नई पीढ़ी के साथ अपने अनुभव बांटेंगे। इस सूचना से खुशी का पारावार नहीं था।

इस तरह हुआ परिचय

पहले दिन शाम को सभी प्रशिक्षणार्थियों का परिचय हुआ। हबीबजी ने सभी को ठीक से सुना और शायद भीतर-भीतर सभी को टटोल भी लिया। किसी ने अपने पुराने नाटक के संवाद सुनाए तो किसी ने कविता और गाना सुनाया। नया थियेटर के कलाकार भी उस सत्र में थे और वे हम लोगों को चुपचाप देख-सुन रहे थे। सारे प्रशिक्षणार्थी हंसी-ठिठोली कर रहे थे। अपने-अपने डर भगाने के लिए जोर-आजमाइश कर रहे थे। बहुत बाद में पता चला कि पहले ही दिन वे कलाकारों की क्षमता से परिचित हो गए थे और कलाकारों की क्षमता के आधार पर नाटक का चयन करने लग गए थे।

नाटक चुनकर चौंकाया

हम लोगों को लग रहा था कि वे दो-तीन घंटे का फुल लेंथ प्ले चुनेंगे और हम लोगों को बड़ा रोल करने का मौका मिलेगा। रीवा में बड़े नाटक इक्का-दुक्का ही हुए थे। इसलिए लग रहा था कि हबीबजी यह काम करेंगे। आश्चर्य तब हुआ जब उन्होंने बड़े नाटक और लोक आधारित नाटकों की बजाय मोहन राकेश की तीन एकांकी चुनी। दफ्तर, छतरी और मां। तीनों यथार्थवादी दृश्यों पर आधारित एकांकी थीं। लगा कि हबीबजी जैसे नाटककार जिनकी ताकत संगीत और लोक की व्यंजना है, कैसे इस नाटक को करेंगे। करेंगे भी तो दर्शकों को कैसे वह आनंद आएगा जिसके लिए वह हबीब के नाटकों को देखना चाहते हैं।

ढूढ लाए बसदेवा

एक हफ्ते बाद हबीबजी ने कहा कि हमें रीवा के आसपास के गांवों में जाना है। आयोजक इस पशोपेश में थे कि इन्हें किस गांव लेकर जाएं। बहरहाल रीवा से तकरीबन ४० किमी दूर बैकुंठपुर गांव उन्हें ले जाया गया, जहां बसदेवा लोकगीत गाने वाले कई परिवार रहते थे। वे गए और सबसे पहले लोगों से मिले। थोड़े परिचय और आत्मीयता के बाद उन्होंने उन लोगों से गाने को कहा। उन्होंने बड़े ही ध्यान से उनकी गायकी सुनी, गायन के अंदाज को देखा और टेप में रिकॉर्ड किया। वे तो चाहते थे कि उन गायकों को ही शिविर में शामिल कर लिया जाए, लेकिन शिविर के नियमों के मुताबिक ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं था। कुछ लोगों को वे साथ लेकर आए और शिविर के दौरान उनका गायन करवाया। हम लोगों ने बचपन से बसदेवा गायन सुना था लेकिन गायन की जिस ताकत को हबीबजी ने कुछ घंटों में पकड़ लिया हम लोगों ने कभी सोचा भी नही था।

देखी उनकी ताकत

हबीबजी ने शिविर के गायकों से बसदेवा गाने के लिए कहा और उसका अभ्यास कराना शुरू कर दिया। उन्होंने गीत लिखा और बसदेवा की धुन से नाटक शुरू करवाया। हम लोग तो दंग थे ही नाटक के नाटक के पंडित भी उनकी इस कला के कायल थे। कहां मोहन राकेश की समकालीन स्थितियों पर लिखी एकांकी और कहां बसदेवा का गायन। लेकिन हबीबजी ने दोनों को ऐसा गूंथा कि मजा आ गया।

जिह्वा पर सरस्वती

दिन में रिहर्सल करवाते और रात को लेक्चर देते। रिहर्सल के दौरान जहां उनका प्रायोगिक ज्ञान हम लोगों को अचंभित करता वहीं लेक्चर के दौरान जैसे उनकी जिह्वा पर सरस्वती विराज जातीं। भरत के नाट्य शास्त्र से लेकर तमाम पश्चिमी नाटककार उनके उदाहरण होते। संस्कृत, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी नाटकों के दृश्य उनके व्याख्यान में दिखाई देने लगते। पढ़ाते समय भी सिगार उनके हाथ में होता और बीच-बीच में कश लेते रहते। जब उन्होंने फिल्मों में भी काम किया तो यह सिगार उनके हाथ में था और कश लेते रहते थे। यह सिगार और उनकी उम्र ही थी जिसकी बजह से वे बाकी प्रशिक्षणार्थियों से अलग दिखते थे। वरना जोश और काम करने की क्षमता में वे हम जैसे तथाकथित नौजवानों से इक्कीस नहीं तीस ठहरते थे। हम लोग काम करते-करते थक जाते थे और घर जाकर निढाल हो जाते थे जबकि वे रात को भी नाटक के दृश्यों की बुनावट में लगे रहते थे।

इंप्रोवाइजेशन के उस्ताद

उनके नया थियेटर में मुझे एक अलग तरह का विरोधाभास भी दिखाई देता। हबीबजी और उनका परिवार उच्च शिक्षित और अतिआधुनिक था। हबीबजी स्वयं ब्रिटेन से थियेटर की पढ़ाई करके आए थे, जबकि उनके साथ काम करने वाले छत्तीसगढ़ के निरक्षर थे। ऐसे गांव के लोग जो छत्तीसगढ़ी के अलावा ठीक से खड़ी बोली भी नहीं समझते थे। आश्चर्यजनक था कि हबीबजी ब्रिटेन जाकर भी छत्तीसगढ़ी नहीं भूले थे और ठेठ गांव के स्तर पर जाकर न केवल उन कलाकारों से संवाद स्थापित करते थे, बल्कि उनकी प्रतिभा का जबरदस्त दोहन कर मंच पर उन्हें हीरा बना देते थे। वे ऐसे लोगों से काम करवाते थे जिन्हें नाटकों को पढ़ना भी नहीं आता था। मैंने पहली बार ऐसा देखा कि वे रिहर्सल के दौरान ही दृश्यों को इंप्रोवाइज करवाते और इंप्रोवाइज करते-करते दृश्य याद करवा देते। देखते-देखते नाटक तैयार हो जाता। बाद में केवल उसकी फिनिशिंग रह जाती। चरणदास चोर में दीपक तिवारी और उनकी पत्नी ने जो अद्भुत अभिनय किया उसको केवल देखने वाला ही महसूस कर सकता है। उनका एक-एक कलाकार इंप्रोवाइज करने में माहिर था। एक कलाकार के भीतर से उसकी कला निचोड़ लेना जितना हबीबजी को आता था, हमें नहीं लगता कि उनके समकालीन और उनके बाद के किसी निर्देशक को आता है।

कमाल का अनुभव

एकांकियों में मेरे छोटे कद के कारण उन्होंने नहीं चुना, लेकिन अपने मशहूर नाटक 'देख रहे हैं नयन' जिसका एक शो उन्हें रीवा में करना था, उसमें मौका दिया। मैं शिविर के छात्रों के साथ रिहर्सल करने के साथ उनके नया थियेटर के कलाकारों के साथ भी रिहर्सल करता था। कहना न होगा कि दोनों अनुभव अपने आपमें अलग और बेहद खूबसूरत थे। ४५ दिन ही सही, पर जब कभी भी हबीबजी का जिक्र होगा तो मैं भी गर्व से सिर उठाकर कह सकंूगा ...हां! मैने भी हबीब जी के साथ काम किया है। थियेटर की हबीब शैली हमेशा-हमेशा दर्शकों का मनोरंजन करती रहेगी।

शनिवार, 30 मई 2009

व्यंग्य- तम्बाकू का दर्शनशास्त्र

उस दिन तंबाकू निषेध दिवस था। एक दार्शनिक किस्म के तंबाकू सेवक से मुलाकात हो गई। फिर क्या था? लगा तंबाकू का दर्शन समझा जाए। इधर से सवालों की शुरुआत हुई कि उधर से झमाझम जवाबी बारिश होने लगी।

'आप दिनभर तंबाकू या गुटका क्यों चबाते रहते हैं?'
'अमीर गरीब को चबा रहा है...नेता वोटर को चबा रहा है...अमेरिका सारी दुनिया को चबा रहा है...दिल्ली की कुरसी भोपाल की कुरसी को, भोपाल की इंदौर की कुरसी को और इंदौर की सागरपैसा को चबा रही है...डॉक्टर मरीज को चबा रहा है...अदालतें न्याय चबा रही हैं...हिंगलिश हिंदी चबा रही है। मैं तो केवल खैनी चबा रहा हूँ।'

'आप तो जानते हैं कि तंबाकू खाने से कैंसर होता है?'
'गरीबी किसी कैंसर से कम है क्या? कैंसर से तो केवल कैंसर का मरीज मरता है, गरीबी तो पूरे खानदान को मारती है। बाप का इलाज नहीं होता, बेटा स्कूल नहीं जाता, बहन की शादी नहीं होती। जब गरीबी का ब्लड कैंसर अपुन का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो तंबाकू क्या उखाड़ लेगी?'

'आप सार्वजनिक स्थलों पर भी धूम्रपान करते हैं, यह अपराध है। इस पर आपको सजा हो सकती है, जुर्माना लग सकता है।'
'सरकार सार्वजनिक स्थलों पर गुटखे का कारखाना चला रही है तो अपराध नहीं है, दुकानदार उसे सार्वजनिक स्थलों पर बेच रहे हैं यह भी अपराध नहीं है, मेरा एक कश अपराध हो गया। सरकार मौत बेचे तो दाता और हम खरीदें तो अपराधी। रही बात जुर्माने की तो मुझे नशेड़ी बनाने के लिए मैं सरकार पर जुर्माना लगा रहा हूँ। या तो वह मुझे जुर्माने की राशि अदा करे या गुटखे को पाचक चूर्ण का दर्जा प्रदान करे।'

'आप विद्वान हैं इसका कुप्रभाव जानते हैं, इसके बाद भी इसका सेवन करते हैं।'
'कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार बुरा है। फिर भी बंद हुआ क्या? देने वाले और लेने वाले में कौन नहीं जानता कि रिश्वतखोरी बुरी चीज है फिर भी बंद हुई क्या? झूठ बोलना पाप है यह कौन नहीं जानता फिर भी दुनिया में झुट्ठों की तादात कम हुई क्या? जानकारी से कुछ नहीं होता। जानकारी किसी बीमारी का कोई इलाज नहीं है।'

'फिर लगता है कि आपके भीतर संकल्पशक्ति की कमी है।'
'संकल्प कोई शक्ति नहीं है। वह भी एक व्यसन है। इस देश का काम तंबाकू के व्यसन के बिना तो चल जाएगा, लेकिन संकल्पों के व्यसन के बिना नहीं चलेगा। भीष्म पितामह के जमाने से हम संकल्प व्यसनी हैं। हमने साझा रूप से ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया और दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से आबादी बढ़ाई, गरीबी हटाने का संकल्प लिया और बेगारों की भरमार हो गई, समाजवाद का संकल्प लिया और पूंजीवाद आ धमका। संकल्प का नशा भी तंबाकू की तरह दिमाग में सुरसुरी पैदा करने के लिए किया जाता है। खैनी, बीड़ी, गुटखे का नशा क्षणिक होता है इसलिए उसका सेवन जल्दी-जल्दी करना पड़ता है, लेकिन संकल्प का सेवन एक बार कर लिया जाए तो साल-छः महीने तक काम करता है। कभी-कभी तो पूरे पाँच साल रहता है। संकल्प के नशे को सामाजिक मान्यता प्राप्त है इसलिए उसके नशेड़ी पूजे जाते हैं। मैं तो कहता हूँ कि तंबाकू निषेध दिवस की जगह संकल्प निषेध दिवस मनाना चाहिए।'

'कुल मिलाकर आप तंबाकू नहीं छोड़ेंगे।'
'मैं आपकी तरह देशद्रोही नहीं हूँ। मैं एक चुटकी तंबाकू खाकर इस देश के तंबाकू उद्योग को आर्थिक सहयोग दे रहा हूँ। रात को एक पैग दारू पीकर इस देश का आबकारी विभाग चला रहा हूँ। मैं मौत की कीमत पर भी देश की तरक्की चाहता हूँ। यह देश कभी सोने की चिड़िया था। आज हम दोबारा इसे सोने की चिड़िया नहीं बना सकते, सोने का पानी तो चढ़ा ही सकते हैं।'

'अच्छा आप बता दें आपको तंबाकू के नशे में कोई बुराई नहीं दिखती?'
'तंबाकू का नशा दुनिया का सबसे छोटा नशा है। आठ आने और एक रुपए का नशा। तंबाकू प्रेम सबसे छोटे आदमी से प्रेम करने जैसा है। यह सामाजिक अपराध नहीं। दौलत के नशे, कुरसी के नशे, ताकते के नशे और मजहब के नशे के आगे इसकी भला क्या औकात? आप करोड़ों छोड़कर अठन्नी लूट रहे हैं।'

'देखिए! आगे मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि मुझे बहुत जोर की तलब लगी है और खैनी खाने के बाद मुँह खोलना संभव नहीं। अस्सी चुटकी और नब्बे ताल का बुरादा आप भी मुँह में डालिए और प्रश्नों की बजाय खैनी की जुगाली कीजिए।'

(साहित्यिक पत्रिका 'वीणा' के अपैल अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 16 मई 2009

होमी तुमको लाल सलाम


इप्टा के जरिए वामपंथी आंदोलन में कुछ दिनों सक्रिय रहने के बाद भी होमी दाजी के बारे में ज्यादा नहीं जानता था। इंदौर आने के बाद उनकी शख्सियत के बारे में पता लगा। वे बीमारी से लड़ रहे थे और अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर थे। इसलिए उनके व्यक्तित्व का जादू भी उस तरह से देखने को नहीं मिला। १४ मई को जब उनकी मौत हुई और सारा इंदौर अपने को अनाथ महसूस करने लगा तब लगा कि वो जरूर कोई जादू था। अंतिम यात्रा में जिस तरह से सभी दलों और विचारों के लोग इकठ्ठा हुए, पार्थिव शरीर को पुष्पांजलि अर्पित की, उससे उनके जिंदगी की ताकत पता चली। बाजार के इस जमाने में जब हानि-लाभ ही रिश्तों का आधार है, ऐसे में एक अकेले आदमी को अंतिम विदाई देने के लिए जब इतने सारे लोग जमा हों तो निश्चित ही यह विचारों और मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्घता का प्रमाण ही है।

जिंदगी उन्हें हर कदम पर तोड़ने में लगी हुई थी और वे हर पल उस पर विजय प्राप्त करने में। जिन मजदूरों का कोई नहीं होता, होमी उनके हुए। उस जमाने में पेरीन दाजी से प्रेम विवाह किया जब लोग प्रेम स्वीकार करने में डरते थे। बेटा रूसी और बेटी रोशनी के माध्यम से जिंदगी में कुछ उजाला महसूस करने लगे तभी बेटे को अल्सर ने और बेटी को कैंसर ने खा लिया। कम्युनिस्ट पार्टी से सांसद और विधायक रहे, नेहरू ने कांग्रेस में बुलाया लेकिन ईमानदारी ने नहीं जाने दिया। पंद्रह साल तक लकवाग्रस्त जीवन जिया। होमी ने इन्हीं तमाम हारों को अपनी विजय का अस्त्र बनाया और जनता को उसका हक दिलवाने में लगे रहे।

वे जिस तरह समाज को बदलने और उसे जागृत बनाने के लिए लगे रहे, उसी तरह ताउम्र पेरीन दाजी से प्यार भी करते रहे। पेरीन और होमी दोनो जैसे एक-दूजे के लिए ही बने थे। उनकी इस मोहब्बत को हमारे जैसी नौजवान पीढ़ी ने उनकी मौत के बाद देखा। १४ को उनका इंतकाल हो चुका है। १५ मई को उनका शव पार्टी कार्यालय शहीद भवन में रखा हुआ है। पेरीन उनके शव को इस तरह दुलार कर रही हों जैसे वे प्रेम के दिनों में उन्हें दुलारती रहीं होंगी। शवयात्रा के पूर्व हमारे रिपोर्टर मित्र अभिषेक चेंडके साढ़े चार घंटे होमी की पार्थिव काया के पास रहे और पेरीन का प्यार देखा। उनके शब्दों में मैने दोनों का प्यार महसूस किया-

अपलक अपने होमी को निहारती रही

अगाध प्रेम की परिभाषा आज होमी और पेरीन के इर्द-गीर्द सिमट गई थी। यह बेमिसाल जोड़ी भौतिक रूप से टूट चुकी है, लेकिन अलौकिक रिश्ता अब भी कायम है। ६४ बरसों के यादों की चमक आज पेरीन की आँखों में जंवा थी,पलकें भीगी थीं, लेकिन नजरों में गुजरे जमाने के एहसास फूलों के मानिंद ताजा थे।

पेरीन अब अकेली रह गईं, उनका प्यार हमेशा-हमेशा के लिए जुदा हो गया, यह जानते हुए भी जुदाई के इन क्षणों को उन्होंने रोकर जाया नहीं किया, वो अपलक अपने होमी को निहारती-सहलाती रहीं। उनकी चिरनिंद्रा में कोई खलल न पहुँचे, इसका पूरी शिद्दत से ध्यान रखा। दर्शन से लेकर अंतिम यात्रा तक पूरे साढ़े चार घंटे वे सिरहाने बैठी रहीं। जब चिता पर पार्थिव देह को रखने की बारी आई तो पेरीन ने अपने प्यार को चूम कर विदा किया।

पार्थिव देह को जब अपोलो अस्पताल से चिमनबाग स्थित निवास पर लाया गया तो पेरीन लिपट कर रो पड़ीं। फिर उन्होंने खुद को संभाला और अपने होमी के करीब बैठ गईं। शहीद भवन में जब दर्शन के लिए पार्थिव देह को रखा गया, तब भी वे एक पल के लिए नहीं हटीं। देह पर रखी जा रही फूल-मालाओं में होमी का चेहरा खोकर न रह जाए, इसलिए पेरीन मालाएँ हटाती रहीं। चेहरे पर बिखरी फूलों की पंखुरियों को भी चुन-चुन कर हटाती रहीं (मानों पखूरियाँ भी दोनों के बीच दूरियाँ पैदा कर रही हो)।

अंतिम समय तक ख्याल रखा- फूलों से सजाए गए वाहन में भी पेरीन होमी के सिरहाने बैठी रहीं। होमी कीशान में पड़नेवाली धूप से कहीं उनका चेहरा कुम्हला न जाए, इसलिए वे कभी आँचल तो कभी रूमाल से चेहरे पर छाँव करती रहीं। कभी खुद रूमाल से पसीना सुखातीं तो कभी आहिस्ता से होमी का चेहरा पोंछती।

चूमकर बोलीं-जा रहे हो-जब देह को चिता पर रखने की तैयारी हो रही थी तो पेरीन होमी के पास बैठी, उन्हें चूमकर कहा -'जा रहे हो होमी।' वो हटने को तैयार नहीं थीं। बाद में दोनों भतीजों व पोते चिराग के साथ अग्निदान दिया और श्रद्धाजंलि सभा की तरफ बढ़ गईं।

होमी ने अपनी मौत को वामपंथी अंदाज में अपनाया। पारसी होते हुए उन मजदूरों के श्मशान में जले, जिनके लिए वे उम्रभर लड़ते रहे। कामरेड...लाल सलाम! चाहे जिस रूप में आना एक बार और आना कामरेड। मजदूर अभी भी अनाथ हैं और विचार भटके हुए।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

इस चुनाव का चेहरा

एक चरण के लोकसभा चुनाव हो गए, दूसरे चरण के कल होने हैं। तीसरा चरण कुछ दूर है। इन दिनों हर कहीं केवल चुनाव की चर्चा और व्यस्तता है। सारा प्रशासनिक अमला चुनाव में व्यस्त, नेता चुनाव में व्यस्त, गुंडे-अपराधी चुनाव में व्यस्त, मीडिया चुनाव में व्यस्त, बाजार चुनाव में व्यस्त। इस व्यस्तता से फिर एक बार निकलेंगे कुछ सांसद और पांच साल तक संसद में बैठकर कुतरेंगे इस देश का भविष्य।

यह चुनाव कई मायनों में पिछले चुनावों से अलग है। इस चुनाव में कोई लहर नहीं है। कोई भी दल न तो लहर पर बैठा है और न ही लहर के खिलाफ अपनी नाव चला रहा है। इस चुनाव में कोई मुद्दा भी नहीं है। महंगाई और आर्थिक मंदी से देश की कमर टूट रही है, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर बातचीत नहीं करना चाहता। विकास के नारे इतने अमूर्त हैं कि उन्हें समझना और उन पर अमल दोनों पहेली है। साम्प्रदायिकता और जातीयता का खून हर राजनीतिक दल के रगों में दौड़ रहा है, लेकिन व्यक्त होने के लिए आवरण की तलाश करता है। आतंकवाद के नाम पर सभी दल एक-दूसरे को नंगा करने तक ही सीमित हैं।

मुद्दों की बजाय व्यक्तिगत आक्षेपों और अमर्यादित भाषा के लिए भी यह चुनाव पिछले चुनावों से अलग है। अपराधियों के चेहरे भले ही ज्यादा न दिखाई दे रहे हों लेकिन अपराधियों की भाषा नेताओं और उम्मीदवारों की जुबान पर है। भाजपा की युवा पीढ़ी अगर वोट के लिए कत्लेआम की भाषा का इस्तेमाल कर रही है, तो बिहार के क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप जल्लादों की भाषा बोल रहे हैं। कांग्रेस के तेवरों में कूटनीति दिखाई दे रही है।

नामांकन दाखिल करते समय उम्मीदवारों ने जिस तरह से अपनी आय-व्यय का ब्यौरा दिया है उससे पता चलता है कि इस गरीब देश पर राज करने जा रहे नेताओं के पास कितनी अकूत संपत्ति है और उन्हें जनता की याद चुनाव के समय किस तरह आती है। सारे नेता मिलकर भारत जैसा देश खरीद लें। इसका दूसरा पहलू देखें तो सबने मिलकर इस देश को इतना लूटा है कि देश तकरीबन इनके हाथों लुट चुका है। जिस संपत्ति का ब्यौरा उन्होंने दिया है, वह किसी और देश से थोड़ी आई है। ये कुबेर संसद पहुंचकर कंगालों का दर्द समझेंगे।

पिछले सभी चुनावों की तरह इस चुनाव में भी एक समानता यह है कि जनता मतदाता है और अपना दुर्भाग्य उसे फिर चुनना है।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

शबे मालवा का जादू


आप किसी शहर पर मुग्ध होना चाहें तो कभी-कभी बेवजह भी हो सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई लड़का किसी लड़की और कोई लड़की किसी लड़की पर। मुग्धता कभी-कभी गुण देखकर आती है और कभी मुग्धता गुणों को चिन्हित करती है। आमतौर पर आप जिस जगह, समाज और शहर में रहते हैं उससे ऊबे हुए रहते हैं, लेकिन कोई एक चीज होती है, जिस पर आप का दिल बार-बार निसार होता है। अब देखिए न! इंदौर में लाख बुराइयाँ हों लेकिन इसका खाने का अंदाज और मौसम हमेशा दिल लूट लेता है। लोग दिनभर की भागदौड़ से फुरसत होकर खाने के लिए कुछ खास अड्डों पर जमा हो जाते हैं। राजवाड़ा, छप्पन और टोनी कॉर्नर जैसी कुछ जगहें खाने के रसिकों के लिए हैं। दंगों के बाद सुरक्षा के लिहाज से राजवाड़ा रात को कुछ सूना-सूना सा रहता है, वरना पूरी रात ऐसा माहौल रहता था जैसे होलकरों के यहाँ बारात आई हो।

खैर! आज अपना दिल खाने पर नहीं मौसम पर आया हुआ है। शबे मालवा को जितनी बार सलाम किया जाए, उतना कम। इसे बाजार नहीं कुदरत गुलजार करती है। एक हजार वसंत एक तरफ और मालवा की रात एक तरफ। मई-जून की गरमी में भी शाम ढ़लते ही ठंडक घुलने लगती है। ऐसा लगता है जैसे हवा नर्मदा और शिप्रा में स्नान करके इंदौर में रात बिताने आई हो। आपके कमरे में कुदरती हवा आती हो और आप एसी वगैरह के शौकीन नहीं हैं, तो रात सपनों में कटेगी। १५ दिन अगर तेज गर्मी पड़ गई तो १६वें दिन से आसमान में बादल टहलते हुए आ जाएँगे और हल्की बूंदाबादी के बाद मौसम फिर हसीन हो जाएगा। पिछले तीन साल से यह मौसम मुझे दंग किए हुए है।

दंग होने वाली बात इसलिए भी कि यहाँ से पचास किलामीटर की दूरी पर महाकाल की नगरी उज्जैन है, वहाँ का मौसम यहाँ से बिलकुल अलग। जब यहाँ का तापमान ३०-३२ डिग्री सेल्सियस रहता है तब वहाँ पारा ४० के आसपास पहुँच जाता है। इसी तरह सत्तर किलोमीटर की दूरी पर ओंकारेश्वर है, वहाँ की गर्मी भी निमाड़ के मिर्ची की तरह मार्च के बाद से ही लाल करने लगती है। फिर इस शहर में ऐसा क्या जादू है कि यहाँ की रात मन को संतोष देती है और जीने का सलीका सिखाती है। कुदरत की संरचना भी कितनी अजीब है कि वह कुछ ही किलोमीटर में अपना श्रृंगार बदल लेती है।

आज की ही बात। पूरे दिन खूब गर्मी पड़ी। ऐसा लगा कि अब कूलर लगाना पड़ेगा। लो गबातचीत में मौसम के गरम होने की बात भी करते दिखे, लेकिन शाम होते-होते माहौल बदल गया। बिजली चमकी, बादल गरजे, आँधी आई और देखते ही देखते पानी गिरने लगा। रात तक मौसम फिर मजेदार। लोग मौसम में इतना रचे-बसे हैं कि मौसम पर बात भी बहुत करते हैं। आसमान में बादल छाए या कोई परिवर्तन हुआ तो अखबार बड़ी-बड़ी खबरें छापते हैं। मौसम की खबरों को चाव के साथ पढ़ा भी जाता है।

आप अगर इसे अतिशयोक्ति न मानें तो मालवा की रात कुदरत की आँखों का वह काजल है, जो किसी भी दिल को बल्लियों उछाल दे। सच में काला जादू।

रविवार, 15 मार्च 2009

इंदौर की रंगपंचमी


बड़ा ही अद्भुत शहर है इंदौर। इसकी उत्सप्रियता का कोई जवाब नहीं। दूर से देखने पर यह और शहरों की तरह साधारण दिखेगा लेकिन इसमें रहने पर इसके कुल-गोत्र का पता चलेगा। पिछले तीन सालों से मैं इस शहर के उत्सव का साक्षी हूं और इसके आनंद को महसूस कर रहा हूं। होली तो पूरा हिंदुस्तान मनाता है लेकिन रंगपंचमी पर रंग खेलने की परंपरा शायद ही देश के किसी दूसरे शहर में होगी। यहां लोग रंग भी ऐसा खेलते हैं कि दूसरे शहरों की होली लाज से पानी-पानी हो जाए। रंगपंचमी को पूरे दिन रंगों की बहार रहती हैं। हर चेहरे रंग में डूबे हुए, हर गाल पर गुलाल। रंग केवल हाथ से एक-दूसरे को नहीं लगाया जाता। पिचकारी से, मिसाइल से, गुब्बारे से रंग मारते हैं। सड़कें, मुहल्ले, घरों के छज्जे सभी लाल हो जाते हैं। रंग उत्सव मनाते हैं। हजारों की टोलियां निकलती हैं, जो गेर कहलाती हैं। सभी मस्ती में। लगता है किसी और ही दुनिया से आए लोग हैं। उन्हें दीन-दुनिया की चिंता नहीं होती। बस रंग...रंग...और रंग।

अलग-अलग मोहल्लों से निकलने वाली गेरें राजवाड़ा पर इकठ्ठा होती हैं। ऐसा लगता है जैसे रंगीलों का महाकुंभ हो। वहां रंग पंचम सुर में गाते हैं और सुर नाचते हैं। हर पैर थिरकता मिलेगा, हर गला गुनगुनाता हुआ। तकरीबन चालीस लाख की आबादी वाले इस शहर के लोगों का उत्साह देखकर ऐसा लगता है कि यहां न तो कोई समस्या है, न कोई गम।

इस रंगपंचमी का आनंद वही जान सकता है जो इसमें शामिल हुआ हो।

होली के दिन जो इंदौर को देखेगा तो लगेगा कि यह कुछ नीरस सा है। तब उसे मथुरा और बरसाने की होली का मजा आएगा। तब उसे दूसरे शहरों का रंग अपनी ओर खींचेगा, लेकिन रंगपंचमी पर जो यहां आया तो वह सब भूल जाएगा। फिर इस शहर के रंग सारे देश के रंगों को औकात बताने लगते हैं। रंगपंचमी पर ऐसी फाग यात्राएं निकलती है कि लगता है रंगों से पुते चेहरों का सैलाब आ गया हो। शहर के बीस-पच्चीस हजार लोग राजवाड़े पर रंग खेलने के लिए ऐसे उमड़ते हैं जैसे सावन में बादल घिर आए हों। लोग एक-दूसरे को भले ही न जानें-पहचानें लेकिन गले मिलकर ऐसे शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं जैसे जन्मों का रिश्ता हो।

यूं तो इसी शहर में लाल और हरे रंग में कलह होती है और जमकर होती है। रंगों का झगड़ा सारी दुनिया में बदनाम करता है। कर्फ्यू लग जाता है, पुलिस की जान निकल जाती है, सरकार का दम फूलने लगता है, लेकिन रंगपंचमी पर मजाल कि रंग आपस में तू-तड़ाक भी करें। रंग आपस में गले मिलते हैं और एक-दूसरे में घुलते हैं। कभी अवसर मिले तो शरीक हों रंगों की इस बारात में।
(चित्र हिंद रक्षक संगठन की फागयात्रा का)