शनिवार, 30 मई 2009

व्यंग्य- तम्बाकू का दर्शनशास्त्र

उस दिन तंबाकू निषेध दिवस था। एक दार्शनिक किस्म के तंबाकू सेवक से मुलाकात हो गई। फिर क्या था? लगा तंबाकू का दर्शन समझा जाए। इधर से सवालों की शुरुआत हुई कि उधर से झमाझम जवाबी बारिश होने लगी।

'आप दिनभर तंबाकू या गुटका क्यों चबाते रहते हैं?'
'अमीर गरीब को चबा रहा है...नेता वोटर को चबा रहा है...अमेरिका सारी दुनिया को चबा रहा है...दिल्ली की कुरसी भोपाल की कुरसी को, भोपाल की इंदौर की कुरसी को और इंदौर की सागरपैसा को चबा रही है...डॉक्टर मरीज को चबा रहा है...अदालतें न्याय चबा रही हैं...हिंगलिश हिंदी चबा रही है। मैं तो केवल खैनी चबा रहा हूँ।'

'आप तो जानते हैं कि तंबाकू खाने से कैंसर होता है?'
'गरीबी किसी कैंसर से कम है क्या? कैंसर से तो केवल कैंसर का मरीज मरता है, गरीबी तो पूरे खानदान को मारती है। बाप का इलाज नहीं होता, बेटा स्कूल नहीं जाता, बहन की शादी नहीं होती। जब गरीबी का ब्लड कैंसर अपुन का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो तंबाकू क्या उखाड़ लेगी?'

'आप सार्वजनिक स्थलों पर भी धूम्रपान करते हैं, यह अपराध है। इस पर आपको सजा हो सकती है, जुर्माना लग सकता है।'
'सरकार सार्वजनिक स्थलों पर गुटखे का कारखाना चला रही है तो अपराध नहीं है, दुकानदार उसे सार्वजनिक स्थलों पर बेच रहे हैं यह भी अपराध नहीं है, मेरा एक कश अपराध हो गया। सरकार मौत बेचे तो दाता और हम खरीदें तो अपराधी। रही बात जुर्माने की तो मुझे नशेड़ी बनाने के लिए मैं सरकार पर जुर्माना लगा रहा हूँ। या तो वह मुझे जुर्माने की राशि अदा करे या गुटखे को पाचक चूर्ण का दर्जा प्रदान करे।'

'आप विद्वान हैं इसका कुप्रभाव जानते हैं, इसके बाद भी इसका सेवन करते हैं।'
'कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार बुरा है। फिर भी बंद हुआ क्या? देने वाले और लेने वाले में कौन नहीं जानता कि रिश्वतखोरी बुरी चीज है फिर भी बंद हुई क्या? झूठ बोलना पाप है यह कौन नहीं जानता फिर भी दुनिया में झुट्ठों की तादात कम हुई क्या? जानकारी से कुछ नहीं होता। जानकारी किसी बीमारी का कोई इलाज नहीं है।'

'फिर लगता है कि आपके भीतर संकल्पशक्ति की कमी है।'
'संकल्प कोई शक्ति नहीं है। वह भी एक व्यसन है। इस देश का काम तंबाकू के व्यसन के बिना तो चल जाएगा, लेकिन संकल्पों के व्यसन के बिना नहीं चलेगा। भीष्म पितामह के जमाने से हम संकल्प व्यसनी हैं। हमने साझा रूप से ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया और दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से आबादी बढ़ाई, गरीबी हटाने का संकल्प लिया और बेगारों की भरमार हो गई, समाजवाद का संकल्प लिया और पूंजीवाद आ धमका। संकल्प का नशा भी तंबाकू की तरह दिमाग में सुरसुरी पैदा करने के लिए किया जाता है। खैनी, बीड़ी, गुटखे का नशा क्षणिक होता है इसलिए उसका सेवन जल्दी-जल्दी करना पड़ता है, लेकिन संकल्प का सेवन एक बार कर लिया जाए तो साल-छः महीने तक काम करता है। कभी-कभी तो पूरे पाँच साल रहता है। संकल्प के नशे को सामाजिक मान्यता प्राप्त है इसलिए उसके नशेड़ी पूजे जाते हैं। मैं तो कहता हूँ कि तंबाकू निषेध दिवस की जगह संकल्प निषेध दिवस मनाना चाहिए।'

'कुल मिलाकर आप तंबाकू नहीं छोड़ेंगे।'
'मैं आपकी तरह देशद्रोही नहीं हूँ। मैं एक चुटकी तंबाकू खाकर इस देश के तंबाकू उद्योग को आर्थिक सहयोग दे रहा हूँ। रात को एक पैग दारू पीकर इस देश का आबकारी विभाग चला रहा हूँ। मैं मौत की कीमत पर भी देश की तरक्की चाहता हूँ। यह देश कभी सोने की चिड़िया था। आज हम दोबारा इसे सोने की चिड़िया नहीं बना सकते, सोने का पानी तो चढ़ा ही सकते हैं।'

'अच्छा आप बता दें आपको तंबाकू के नशे में कोई बुराई नहीं दिखती?'
'तंबाकू का नशा दुनिया का सबसे छोटा नशा है। आठ आने और एक रुपए का नशा। तंबाकू प्रेम सबसे छोटे आदमी से प्रेम करने जैसा है। यह सामाजिक अपराध नहीं। दौलत के नशे, कुरसी के नशे, ताकते के नशे और मजहब के नशे के आगे इसकी भला क्या औकात? आप करोड़ों छोड़कर अठन्नी लूट रहे हैं।'

'देखिए! आगे मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि मुझे बहुत जोर की तलब लगी है और खैनी खाने के बाद मुँह खोलना संभव नहीं। अस्सी चुटकी और नब्बे ताल का बुरादा आप भी मुँह में डालिए और प्रश्नों की बजाय खैनी की जुगाली कीजिए।'

(साहित्यिक पत्रिका 'वीणा' के अपैल अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 16 मई 2009

होमी तुमको लाल सलाम


इप्टा के जरिए वामपंथी आंदोलन में कुछ दिनों सक्रिय रहने के बाद भी होमी दाजी के बारे में ज्यादा नहीं जानता था। इंदौर आने के बाद उनकी शख्सियत के बारे में पता लगा। वे बीमारी से लड़ रहे थे और अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर थे। इसलिए उनके व्यक्तित्व का जादू भी उस तरह से देखने को नहीं मिला। १४ मई को जब उनकी मौत हुई और सारा इंदौर अपने को अनाथ महसूस करने लगा तब लगा कि वो जरूर कोई जादू था। अंतिम यात्रा में जिस तरह से सभी दलों और विचारों के लोग इकठ्ठा हुए, पार्थिव शरीर को पुष्पांजलि अर्पित की, उससे उनके जिंदगी की ताकत पता चली। बाजार के इस जमाने में जब हानि-लाभ ही रिश्तों का आधार है, ऐसे में एक अकेले आदमी को अंतिम विदाई देने के लिए जब इतने सारे लोग जमा हों तो निश्चित ही यह विचारों और मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्घता का प्रमाण ही है।

जिंदगी उन्हें हर कदम पर तोड़ने में लगी हुई थी और वे हर पल उस पर विजय प्राप्त करने में। जिन मजदूरों का कोई नहीं होता, होमी उनके हुए। उस जमाने में पेरीन दाजी से प्रेम विवाह किया जब लोग प्रेम स्वीकार करने में डरते थे। बेटा रूसी और बेटी रोशनी के माध्यम से जिंदगी में कुछ उजाला महसूस करने लगे तभी बेटे को अल्सर ने और बेटी को कैंसर ने खा लिया। कम्युनिस्ट पार्टी से सांसद और विधायक रहे, नेहरू ने कांग्रेस में बुलाया लेकिन ईमानदारी ने नहीं जाने दिया। पंद्रह साल तक लकवाग्रस्त जीवन जिया। होमी ने इन्हीं तमाम हारों को अपनी विजय का अस्त्र बनाया और जनता को उसका हक दिलवाने में लगे रहे।

वे जिस तरह समाज को बदलने और उसे जागृत बनाने के लिए लगे रहे, उसी तरह ताउम्र पेरीन दाजी से प्यार भी करते रहे। पेरीन और होमी दोनो जैसे एक-दूजे के लिए ही बने थे। उनकी इस मोहब्बत को हमारे जैसी नौजवान पीढ़ी ने उनकी मौत के बाद देखा। १४ को उनका इंतकाल हो चुका है। १५ मई को उनका शव पार्टी कार्यालय शहीद भवन में रखा हुआ है। पेरीन उनके शव को इस तरह दुलार कर रही हों जैसे वे प्रेम के दिनों में उन्हें दुलारती रहीं होंगी। शवयात्रा के पूर्व हमारे रिपोर्टर मित्र अभिषेक चेंडके साढ़े चार घंटे होमी की पार्थिव काया के पास रहे और पेरीन का प्यार देखा। उनके शब्दों में मैने दोनों का प्यार महसूस किया-

अपलक अपने होमी को निहारती रही

अगाध प्रेम की परिभाषा आज होमी और पेरीन के इर्द-गीर्द सिमट गई थी। यह बेमिसाल जोड़ी भौतिक रूप से टूट चुकी है, लेकिन अलौकिक रिश्ता अब भी कायम है। ६४ बरसों के यादों की चमक आज पेरीन की आँखों में जंवा थी,पलकें भीगी थीं, लेकिन नजरों में गुजरे जमाने के एहसास फूलों के मानिंद ताजा थे।

पेरीन अब अकेली रह गईं, उनका प्यार हमेशा-हमेशा के लिए जुदा हो गया, यह जानते हुए भी जुदाई के इन क्षणों को उन्होंने रोकर जाया नहीं किया, वो अपलक अपने होमी को निहारती-सहलाती रहीं। उनकी चिरनिंद्रा में कोई खलल न पहुँचे, इसका पूरी शिद्दत से ध्यान रखा। दर्शन से लेकर अंतिम यात्रा तक पूरे साढ़े चार घंटे वे सिरहाने बैठी रहीं। जब चिता पर पार्थिव देह को रखने की बारी आई तो पेरीन ने अपने प्यार को चूम कर विदा किया।

पार्थिव देह को जब अपोलो अस्पताल से चिमनबाग स्थित निवास पर लाया गया तो पेरीन लिपट कर रो पड़ीं। फिर उन्होंने खुद को संभाला और अपने होमी के करीब बैठ गईं। शहीद भवन में जब दर्शन के लिए पार्थिव देह को रखा गया, तब भी वे एक पल के लिए नहीं हटीं। देह पर रखी जा रही फूल-मालाओं में होमी का चेहरा खोकर न रह जाए, इसलिए पेरीन मालाएँ हटाती रहीं। चेहरे पर बिखरी फूलों की पंखुरियों को भी चुन-चुन कर हटाती रहीं (मानों पखूरियाँ भी दोनों के बीच दूरियाँ पैदा कर रही हो)।

अंतिम समय तक ख्याल रखा- फूलों से सजाए गए वाहन में भी पेरीन होमी के सिरहाने बैठी रहीं। होमी कीशान में पड़नेवाली धूप से कहीं उनका चेहरा कुम्हला न जाए, इसलिए वे कभी आँचल तो कभी रूमाल से चेहरे पर छाँव करती रहीं। कभी खुद रूमाल से पसीना सुखातीं तो कभी आहिस्ता से होमी का चेहरा पोंछती।

चूमकर बोलीं-जा रहे हो-जब देह को चिता पर रखने की तैयारी हो रही थी तो पेरीन होमी के पास बैठी, उन्हें चूमकर कहा -'जा रहे हो होमी।' वो हटने को तैयार नहीं थीं। बाद में दोनों भतीजों व पोते चिराग के साथ अग्निदान दिया और श्रद्धाजंलि सभा की तरफ बढ़ गईं।

होमी ने अपनी मौत को वामपंथी अंदाज में अपनाया। पारसी होते हुए उन मजदूरों के श्मशान में जले, जिनके लिए वे उम्रभर लड़ते रहे। कामरेड...लाल सलाम! चाहे जिस रूप में आना एक बार और आना कामरेड। मजदूर अभी भी अनाथ हैं और विचार भटके हुए।