बुधवार, 21 जनवरी 2009

ओबामा त्रिशूल

ओबामा है जप रहा , अब तो सारा देश.
जैसे वे ही हरेंगे, अपना सारा क्लेश.

कल तक चमड़ी श्वेत थी, और काला था राज.
हो गए दोनों एक से, फिर भी करते नाज.

सिंहासन पर बैठकर, काग सुनाता मंत्र.
दुनिया का सुख छीनकर, हँसता है जनतंत्र

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

या तो मारो या फिर मरो

वे आए थे हमारा ताज जलाने और जला कर चले गए। उसके बाद से हम माथा और छाती पीट रहे हैं। पडोसी देश पर दबाव बनाने का ढोल भी लगातार पीटे जा रहे हैं लेकिन हाथ कुछ नहीं आ रहा है। सांप निकल गया और लकीर बची है सो उसे धुने पडे हैं। हमारी पीढी यही देखकर और भुगतकर बडी तथा बूढी हो रही है। जब अमेरिका कहता है कि हम अब सारी दुनिया से आतंक का अंत कर देंगे तो हम फूलकर कुप्पा हो जाते हैं कि कोई तारणहार आ रहा है। इसी बहाने हमारी मुसीबतों का संहार भी हो जाएगा। आज तक तो ऐसा नहीं हुआ और न ही निकट भविष्य में ऐसी उम्मीद नजर आती।

फिर विकल्प क्या है। या तो हम अपने ताज के लिए अपनी लडाई स्वयं लडें या फिर यह सारा अपमान और संहार सहें। किसी और का कंधा जब तक हम बंदूक रखने के लिए तलाशते रहेंगे हमारे सीने में दुश्मन की गोलियां लगती रहेंगी। कूटनीति और जन पंचायत से काम तब तक लिया जाता है जब तक उसे मानने के लिए दुश्मन के पास जमीर हो। अब इन कोशिशों से आगे बढकर हाथ में हथियार उठाना पडेगा और सीमा पर गरजना पडेगा। वायुसेना को उन ठिकानों को तलाशना पडेगा जो हमारे लिए मुसीबत का सबब बने हुए हैं।

यह सब अभी करना होगा। यदि हम ऐसा नहीं करते तो दुश्मन को यह मानने मे कतई देरी नहीं लगेगी कि हमारी बंदूकों के साथ हमारी आत्मा में भी जंग लग चुकी है। केवल दुश्मन ही नहीं वरन हमारे अपने देश के लोग भी यही सोचेंगे और सरकार की नपुंसकता मुल्क की नपुंसकता मानने लगेंगे।

सवाल अगर सामने है तो जवाब अभी देना होगा। अभी नहीं तो कभी नहीं।