बुधवार, 10 जून 2009

हां! मैने भी हबीबजी के साथ काम किया है


१९९७ का अगस्त महीना। हबीब तनवीर रंगमंच में किसी देव पुरुष के रूप में जाने जाते थे। सारी दुनिया में उनकी ख्याति थी। दिल्ली में नया थियेटर चला रहा थे। उनके नाटकों के प्रदर्शन देश-विदेश में हो रहे थे। फिल्मों में काम कर चुके थे। तमाम राष्ट्रीय सम्मान उन्हें मिल चुके थे। हर छोटा-बड़ा कलाकार उनके साथ काम करना चाहता था। मैं उन दिनों रंगमंच का विद्यार्थी था और निश्चित रूप से उनके साथ काम करके खुद को कुछ बड़ा मानना चाहता था। कुछ सीखना चाहता था और उनके सामने अपनी प्रतिभा को सिद्घ करना चाहता था। प्रसिद्घ आलोचक डॉ. कमला प्रसाद रीवा के अवधेश प्रताप सिंह विवि में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे और उन दिनों इप्टा में हमारे संरक्षक भी। उन्होंने बताया कि उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र की कार्यशाला में हबीबजी आ रहे हैं और ४५ दिन वे रीवा में रहेंगे और नई पीढ़ी के साथ अपने अनुभव बांटेंगे। इस सूचना से खुशी का पारावार नहीं था।

इस तरह हुआ परिचय

पहले दिन शाम को सभी प्रशिक्षणार्थियों का परिचय हुआ। हबीबजी ने सभी को ठीक से सुना और शायद भीतर-भीतर सभी को टटोल भी लिया। किसी ने अपने पुराने नाटक के संवाद सुनाए तो किसी ने कविता और गाना सुनाया। नया थियेटर के कलाकार भी उस सत्र में थे और वे हम लोगों को चुपचाप देख-सुन रहे थे। सारे प्रशिक्षणार्थी हंसी-ठिठोली कर रहे थे। अपने-अपने डर भगाने के लिए जोर-आजमाइश कर रहे थे। बहुत बाद में पता चला कि पहले ही दिन वे कलाकारों की क्षमता से परिचित हो गए थे और कलाकारों की क्षमता के आधार पर नाटक का चयन करने लग गए थे।

नाटक चुनकर चौंकाया

हम लोगों को लग रहा था कि वे दो-तीन घंटे का फुल लेंथ प्ले चुनेंगे और हम लोगों को बड़ा रोल करने का मौका मिलेगा। रीवा में बड़े नाटक इक्का-दुक्का ही हुए थे। इसलिए लग रहा था कि हबीबजी यह काम करेंगे। आश्चर्य तब हुआ जब उन्होंने बड़े नाटक और लोक आधारित नाटकों की बजाय मोहन राकेश की तीन एकांकी चुनी। दफ्तर, छतरी और मां। तीनों यथार्थवादी दृश्यों पर आधारित एकांकी थीं। लगा कि हबीबजी जैसे नाटककार जिनकी ताकत संगीत और लोक की व्यंजना है, कैसे इस नाटक को करेंगे। करेंगे भी तो दर्शकों को कैसे वह आनंद आएगा जिसके लिए वह हबीब के नाटकों को देखना चाहते हैं।

ढूढ लाए बसदेवा

एक हफ्ते बाद हबीबजी ने कहा कि हमें रीवा के आसपास के गांवों में जाना है। आयोजक इस पशोपेश में थे कि इन्हें किस गांव लेकर जाएं। बहरहाल रीवा से तकरीबन ४० किमी दूर बैकुंठपुर गांव उन्हें ले जाया गया, जहां बसदेवा लोकगीत गाने वाले कई परिवार रहते थे। वे गए और सबसे पहले लोगों से मिले। थोड़े परिचय और आत्मीयता के बाद उन्होंने उन लोगों से गाने को कहा। उन्होंने बड़े ही ध्यान से उनकी गायकी सुनी, गायन के अंदाज को देखा और टेप में रिकॉर्ड किया। वे तो चाहते थे कि उन गायकों को ही शिविर में शामिल कर लिया जाए, लेकिन शिविर के नियमों के मुताबिक ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं था। कुछ लोगों को वे साथ लेकर आए और शिविर के दौरान उनका गायन करवाया। हम लोगों ने बचपन से बसदेवा गायन सुना था लेकिन गायन की जिस ताकत को हबीबजी ने कुछ घंटों में पकड़ लिया हम लोगों ने कभी सोचा भी नही था।

देखी उनकी ताकत

हबीबजी ने शिविर के गायकों से बसदेवा गाने के लिए कहा और उसका अभ्यास कराना शुरू कर दिया। उन्होंने गीत लिखा और बसदेवा की धुन से नाटक शुरू करवाया। हम लोग तो दंग थे ही नाटक के नाटक के पंडित भी उनकी इस कला के कायल थे। कहां मोहन राकेश की समकालीन स्थितियों पर लिखी एकांकी और कहां बसदेवा का गायन। लेकिन हबीबजी ने दोनों को ऐसा गूंथा कि मजा आ गया।

जिह्वा पर सरस्वती

दिन में रिहर्सल करवाते और रात को लेक्चर देते। रिहर्सल के दौरान जहां उनका प्रायोगिक ज्ञान हम लोगों को अचंभित करता वहीं लेक्चर के दौरान जैसे उनकी जिह्वा पर सरस्वती विराज जातीं। भरत के नाट्य शास्त्र से लेकर तमाम पश्चिमी नाटककार उनके उदाहरण होते। संस्कृत, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी नाटकों के दृश्य उनके व्याख्यान में दिखाई देने लगते। पढ़ाते समय भी सिगार उनके हाथ में होता और बीच-बीच में कश लेते रहते। जब उन्होंने फिल्मों में भी काम किया तो यह सिगार उनके हाथ में था और कश लेते रहते थे। यह सिगार और उनकी उम्र ही थी जिसकी बजह से वे बाकी प्रशिक्षणार्थियों से अलग दिखते थे। वरना जोश और काम करने की क्षमता में वे हम जैसे तथाकथित नौजवानों से इक्कीस नहीं तीस ठहरते थे। हम लोग काम करते-करते थक जाते थे और घर जाकर निढाल हो जाते थे जबकि वे रात को भी नाटक के दृश्यों की बुनावट में लगे रहते थे।

इंप्रोवाइजेशन के उस्ताद

उनके नया थियेटर में मुझे एक अलग तरह का विरोधाभास भी दिखाई देता। हबीबजी और उनका परिवार उच्च शिक्षित और अतिआधुनिक था। हबीबजी स्वयं ब्रिटेन से थियेटर की पढ़ाई करके आए थे, जबकि उनके साथ काम करने वाले छत्तीसगढ़ के निरक्षर थे। ऐसे गांव के लोग जो छत्तीसगढ़ी के अलावा ठीक से खड़ी बोली भी नहीं समझते थे। आश्चर्यजनक था कि हबीबजी ब्रिटेन जाकर भी छत्तीसगढ़ी नहीं भूले थे और ठेठ गांव के स्तर पर जाकर न केवल उन कलाकारों से संवाद स्थापित करते थे, बल्कि उनकी प्रतिभा का जबरदस्त दोहन कर मंच पर उन्हें हीरा बना देते थे। वे ऐसे लोगों से काम करवाते थे जिन्हें नाटकों को पढ़ना भी नहीं आता था। मैंने पहली बार ऐसा देखा कि वे रिहर्सल के दौरान ही दृश्यों को इंप्रोवाइज करवाते और इंप्रोवाइज करते-करते दृश्य याद करवा देते। देखते-देखते नाटक तैयार हो जाता। बाद में केवल उसकी फिनिशिंग रह जाती। चरणदास चोर में दीपक तिवारी और उनकी पत्नी ने जो अद्भुत अभिनय किया उसको केवल देखने वाला ही महसूस कर सकता है। उनका एक-एक कलाकार इंप्रोवाइज करने में माहिर था। एक कलाकार के भीतर से उसकी कला निचोड़ लेना जितना हबीबजी को आता था, हमें नहीं लगता कि उनके समकालीन और उनके बाद के किसी निर्देशक को आता है।

कमाल का अनुभव

एकांकियों में मेरे छोटे कद के कारण उन्होंने नहीं चुना, लेकिन अपने मशहूर नाटक 'देख रहे हैं नयन' जिसका एक शो उन्हें रीवा में करना था, उसमें मौका दिया। मैं शिविर के छात्रों के साथ रिहर्सल करने के साथ उनके नया थियेटर के कलाकारों के साथ भी रिहर्सल करता था। कहना न होगा कि दोनों अनुभव अपने आपमें अलग और बेहद खूबसूरत थे। ४५ दिन ही सही, पर जब कभी भी हबीबजी का जिक्र होगा तो मैं भी गर्व से सिर उठाकर कह सकंूगा ...हां! मैने भी हबीब जी के साथ काम किया है। थियेटर की हबीब शैली हमेशा-हमेशा दर्शकों का मनोरंजन करती रहेगी।