गुरुवार, 21 अगस्त 2008

उम्मीद का एक शेर

हालात के क़दमों में कलंदर नहीं गिरता।
टूटे भी तारा पर ज़मी पर नहीं गिरता।
गिरता है समंदर में शौक से दरिया,
पर किसी दरिया में समंदर नहीं गिरता।


(मित्र राजेश साहनी द्वारा भेजा गया संदेश)

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की एक कविता

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियां बारी बारी
छिटकाईं जिनने चिनगारी
जो चढ़ गए पुण्य-वेदी पर
लिए बिना गरदन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे
जल-जलकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल


पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही हैं लपट दिशाएं
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चंद्र भूगोल खगोल
कलम आज उनकी जय बोल ।

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

एक कविता

जुकाम

जुकाम जब अपने चरम पर होता है
तो नहीं सुनाई पड़ती बम की आवाज़
कानों के भीतर सांय-सांय दौड़ता है बम का सन्नाटा
किसी की मौत पर भी झनझना कर नहीं खड़े होते रोएँ
सुंदर से सुंदर स्त्री देखकर नहीं होती प्यार करने की इच्छा

काम करते हुए जब टपकती है नाक
तो लगता है संसद पर छिटक गई है
अल्पमत की साझा सरकार
उसे पोंछते हुए लगता है
सरकार दीवारों से पोंछ रही है गरीबी हटाने का नारा

सरकारों की तरह जुकाम को भी बीमारी नहीं मानते लोग
तीमारदार नहीं करते सेवा
डॉक्टर अस्पताल में भर्ती नहीं करते
ऑफिस से नहीं मिलती छुट्टी
पड़ोसी-रिश्तेदार नहीं आते देखने
बीमारियों का तिरस्कृत इलाका है जुकाम

यह राजा को भी बना देता है मेहतर
करवा लेता है शरीर के सार्वजनिक इलाकों की सफाई
भरी सभा में एक छींक से खुल जाती है
बड़े-बड़े बादशाहों की कलई

एक बार रुक जाएगा कामवेग
लेकिन छींकवेग नहीं रोक सकते ब्रम्हा भी

जुकाम से लड़ना अपनी ओकात से लड़ना है।

  • ओम द्विवेदी

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

मेघा रे ...

काली बदरिया से दो बोल


जैसे घटाओं के पुष्पक विमान पर बैठकर धरती के अंगनारे में बूंदों की बारात आई हो... जैसे प्यासी धरती की तड़प ने महासागर की तलहटी को झकझोर दिया हो... जैसे बीजों के भीतर सो रहे अंकुरने वाले गीतों ने कोरस में मल्हार गाया हो... जैसे सूखे पत्तों ने ईश्वर से प्रार्थना की हो और उनकी मुराद पुरी हो गई हो... जैसे करी कजरारी बदरिया को घरों की मुडेरों से मोहब्बत हो गई हो... जैसे चातकों ने बादलों से चीख-चीख कर कहा हो कि अगर तुम जरा भी रुके तो हम आसमानी छत पर फांसी लगाकर तुम्हारी मर्दानगी को कोसेंगे... जैसे बादलों ने रात और दिन को बूंदों की डोर से बाँध दिया हो... जैसे सूरज को देश निकाला मिल गया हो... जैसे नदियों की खाली कोख पहाडों से देखी न गई हो...जैसे पत्थरों ने तानसेन से गायकी सीख ली हो... जैसे आषाढ़ ने जेठ की दुपहरी के विरुद्ध पांचजन्य फूंक दिया हो...

जैसे...जैसे...जैसे इतना सब कुछ कह देने के बाद भी लगता है कि घोंसले में बैठे पांखियों की तरह चहक कर उडूं और भीगता हुआ धरती की परिक्रमा कर आऊँ। खेतों के कगारों को तोड़कर उछाह भरते पानी से अटखेलियाँ करूँ, पंखों से पानी छिताराऊ और आसमान में इन्द्रधनुष बनाऊ। मेघों के महायज्ञ में शामिल होने के लिए ख़ुद कागज की नाव बनकर तेज़ धार बहती नदी में उछलता, उतराता गंगोत्री से गंगा सागर तक तटों को चूम आऊँ, झूम आऊं। किसी फूले हुए लाल गुलाब पर तितली बनकर बैठ कभी अपने रंगीन पंखों को चुराऊं तो कभी खोलकर इतना फैला दूँ की इन पंखों का रंग धरती के आँचल में घुल जाए।

जी करता है बीजों की आत्मा बनकर भुरभुरी धरती के नीचे घुसकर अंकुर पडू, फूट पडू। किसी विशालकाय मन्दिर के घंटे की नाद बनकर गूंजता रहूँ बरसों-बरस। मस्जिद से पढी गई अजान की तरह घुलता रहूँ देर तक। यह आषाढ़ की पहली बारिश है की पहला प्यार, न ठीक से समझ में आता ... न ठीक से कहा जाता। कितनी दुआओं, कितनी मन्नतों और कितनी आरजुओं ने बूंदों के इस देवता को प्रसन्न किया है की ये मल्लिका को भीतर तक भिगो चुके हैं, उसे सारे तटबंधों को तोड़ने के लिए बाध्य कर रहे हैं। गीतकारों के भीतर गीत झरने बनकर फूट रहे हैं। धरती के लाल राह देख रहे हैं की थोड़ी सी मोहलत मिले तो धरती को बीजों का उपहार सौपूं।

हे मेघराज! तुम्हारे इस वरदान से बीज तो चहक रहे हैं, लेकिन चहकने वाले पांखी घोसलों में सहमे-सहमे से हैं। नए पौधे तो आसमान की ओर सीना तानकर बढ़ रहे हैं, लेकिन बूढी साखे टूटने को हैं। वे अंजुरी भर दुआएं लेकर तुम्हारी देहरी पर अरदास लगा रहे हैं की हे मौला! इतना पानी तो देना की धरती का पानी न उतरे, लेकिन इतनी लाज भी रखना की हंसती आंखों में बाढ़ न आए।

  • ओम द्विवेदी

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

अब दुनिया को जीत फकीरे

उमर न जाए बीत फकीरे।
अब दुनिया को जीत फकीरे।

जब तक बची कौम भूखों की,
रोटी ही है गीत फकीरे।

कैसा रामराज आया है,
स्वयं राम भयभीत फकीरे।

साथ नहीं जो मुट्ठी ताने,
उनको कहो अतीत फकीरे।

समय बांसुरी बजा रहा है,
तुम तो गाओ गीत फकीरे।

  • ओम द्विवेदी