गुरुवार, 7 अगस्त 2008

मेघा रे ...

काली बदरिया से दो बोल


जैसे घटाओं के पुष्पक विमान पर बैठकर धरती के अंगनारे में बूंदों की बारात आई हो... जैसे प्यासी धरती की तड़प ने महासागर की तलहटी को झकझोर दिया हो... जैसे बीजों के भीतर सो रहे अंकुरने वाले गीतों ने कोरस में मल्हार गाया हो... जैसे सूखे पत्तों ने ईश्वर से प्रार्थना की हो और उनकी मुराद पुरी हो गई हो... जैसे करी कजरारी बदरिया को घरों की मुडेरों से मोहब्बत हो गई हो... जैसे चातकों ने बादलों से चीख-चीख कर कहा हो कि अगर तुम जरा भी रुके तो हम आसमानी छत पर फांसी लगाकर तुम्हारी मर्दानगी को कोसेंगे... जैसे बादलों ने रात और दिन को बूंदों की डोर से बाँध दिया हो... जैसे सूरज को देश निकाला मिल गया हो... जैसे नदियों की खाली कोख पहाडों से देखी न गई हो...जैसे पत्थरों ने तानसेन से गायकी सीख ली हो... जैसे आषाढ़ ने जेठ की दुपहरी के विरुद्ध पांचजन्य फूंक दिया हो...

जैसे...जैसे...जैसे इतना सब कुछ कह देने के बाद भी लगता है कि घोंसले में बैठे पांखियों की तरह चहक कर उडूं और भीगता हुआ धरती की परिक्रमा कर आऊँ। खेतों के कगारों को तोड़कर उछाह भरते पानी से अटखेलियाँ करूँ, पंखों से पानी छिताराऊ और आसमान में इन्द्रधनुष बनाऊ। मेघों के महायज्ञ में शामिल होने के लिए ख़ुद कागज की नाव बनकर तेज़ धार बहती नदी में उछलता, उतराता गंगोत्री से गंगा सागर तक तटों को चूम आऊँ, झूम आऊं। किसी फूले हुए लाल गुलाब पर तितली बनकर बैठ कभी अपने रंगीन पंखों को चुराऊं तो कभी खोलकर इतना फैला दूँ की इन पंखों का रंग धरती के आँचल में घुल जाए।

जी करता है बीजों की आत्मा बनकर भुरभुरी धरती के नीचे घुसकर अंकुर पडू, फूट पडू। किसी विशालकाय मन्दिर के घंटे की नाद बनकर गूंजता रहूँ बरसों-बरस। मस्जिद से पढी गई अजान की तरह घुलता रहूँ देर तक। यह आषाढ़ की पहली बारिश है की पहला प्यार, न ठीक से समझ में आता ... न ठीक से कहा जाता। कितनी दुआओं, कितनी मन्नतों और कितनी आरजुओं ने बूंदों के इस देवता को प्रसन्न किया है की ये मल्लिका को भीतर तक भिगो चुके हैं, उसे सारे तटबंधों को तोड़ने के लिए बाध्य कर रहे हैं। गीतकारों के भीतर गीत झरने बनकर फूट रहे हैं। धरती के लाल राह देख रहे हैं की थोड़ी सी मोहलत मिले तो धरती को बीजों का उपहार सौपूं।

हे मेघराज! तुम्हारे इस वरदान से बीज तो चहक रहे हैं, लेकिन चहकने वाले पांखी घोसलों में सहमे-सहमे से हैं। नए पौधे तो आसमान की ओर सीना तानकर बढ़ रहे हैं, लेकिन बूढी साखे टूटने को हैं। वे अंजुरी भर दुआएं लेकर तुम्हारी देहरी पर अरदास लगा रहे हैं की हे मौला! इतना पानी तो देना की धरती का पानी न उतरे, लेकिन इतनी लाज भी रखना की हंसती आंखों में बाढ़ न आए।

  • ओम द्विवेदी

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