गुरुवार, 12 मार्च 2009

व्यंग्य-रंगों को पानी दे मौला

ज्ञानचंद से भगवान बचाए। मिल गए कि ज्ञान देकर ही मानेंगे। आप लाख उनके ज्ञान को धूल की तरह झाड़ते रहिए, वे बिना दिए नहीं मानेंगे। उनके पिटारे में मौसम, समय और परिस्थिति के अनुकूल ज्ञान तैयार रहता है। होली का मौसम देख बंदे के ऊपर झट से एक ज्ञान उन्होंने चिपका दिया कि शहर में पानी की बहुत कमी है, इसलिए इस साल होली बिना पानी के खेलें। जैसे होली न हो गिल्ली-डंडे का खेल हो। वहाँ तक जाने में उनके दिमाग का दम फूल गया होगा वरना वे यह भी कह सकते थे कि धरती पर पेड़ों की कमी हो गई है अत: क्रिकेट बिना बल्ले के और लड़कियों की कमी है इसलिए शादी बिना लड़कियों के करो। चुनाव भी बिना वोट के करो। रंगों को क्या तुम्हारे आँसुओं में घोलकर लाल करें ज्ञानचंद जी! अच्छा हुआ ज्ञानचंद जी ने यह अकल 'बरसाने में नहीं दी, नहीं तो अब तक गोपियों की सारी लाठियाँ तड़ातड़ इन्हीं के सिर पर गिर गई होतीं। ज्ञान दे-देकर पहले तो धरती का सारा पानी चूस लिया, अब होली का सनातन खेल पचाने में लगे हैं।

होली आई है तो रंग खेलेंगे, पानी में घोल-घोलकर खेलेंगे, पिचकारी मारेंगे-पिचकारा मारेंगे। अपने घर में बोरिंग भी है और नलों में पानी भी खूब आता है। तुम प्यासे मर रहे तो चार ठो कंचा खरीद लो और घर के भीतर खेलो, बाहर निकले तो तुम्हारा भी मुँह पोत देंगे। अरे सूखे गोबर के ढेले! भागीरथ स्वर्ग से गंगा तुम्हारे मुँह में डालकर मोक्ष देने के लिए नहीं, हमारे रंग घोलने और रंग धोने के लिए ही लाए हैं। हमारी होली का रंग घोलने के लिए ही नर्मदा मइया मगरमच्छ पर सवार होकर दौड़ी चली आई हैं। नदिया में रहकर भी अगर मच्छी पानी-पानी चिल्ला रही है तो जा एक रुपया का पाउच खरीद, उससे गला तर कर, फिर कहीं दूसरा ज्ञान बाँट।

तुमने सारे तालाब खा लिए, कुए-बावड़ी में अपना पाप डाल दिया, नदियों को नाला कर दिया, तब पानी-पानी नहीं रोये...अब हमारी गेर देखकर तुम्हारा कलेजा खाक हुआ जा रहा है। रंगों के बहाने थोड़ा भंग की तरंग चढ़ती है, गोरी के गाल पर गुलाल लग जाता है, दुश्मनी मोहब्बत-मोहब्बत खेल लेती है, दिल फाग में झूम लेता है... तो तुम जले-भुने जा रहे हो। दिल को दरिया न सही बाल्टी करो और बाहर निकलकर रंगबाजों को एकाध बाल्टी पानी दो, वरना वे तुम्हें चुल्लूभर पानी देकर चले जाएँगे और गेर खेलकर लौटेंगे तो पूछेंगे-'डूबे कि नहीं। ज्ञानचंद, सूखा रंग किससे-किससे खिलवाओगे? नगर निगम सालभर सूखा रंग ही खेलता है। सड़क खोदकर सबके गालों पर रात-दिन धूल की मालिश करता है। सूखे का ज्यादा शौक है तो मुँह खोलकर चौराहे पर खड़े जो जाओ, शाम तक उससे ट्रॉलीभर मिट्टी निकल आएगी। मितव्ययिता के महानायक! पानी की इतनी ही बचत करनी है तो आज से पाखाना साफ करने, कपड़े धोने और दाँत साफ करने जैसे निकृष्ट कार्य से मुक्ति प्राप्त करो। मरे कुत्ते जैसा जब गंधाओगे तो मोहल्लेवाले तुम्हारे बचत बैंक में दो-दो बूँद पानी डाल जाएँगे।

एक बात है ज्ञानचंद, तू जिसको भी बचाने में लगा उसका सफाया हुआ। बिजली बचाया तो देश अँधेरे में, इंसानियत बचाई तो सब जगह खून बहा, न्याय बचाया तो अन्याय फला-फूला, लोकतंत्र बचाया तो राजतंत्र बच गया, पूरब बचाते-बचाते पश्चिम बच गया और रोटी बचाया तो बाजार बच गया। अब पानी बचाने में लगे हो, तय है प्यास बचेगी।

अरे ज्ञानचंद! तुम तो बुरा मान गए। यही तो होली है। जब रंग ताने मारें और तानों से रंग निकले। बुरा माने की होली की मिठाई में कंकड़ पड़ा। अपुन को भी धरती प्यारी है, भला उसका 'पानी कैसे उतरने देंगे।
-ओम द्विवेदी

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

" रंगों को पानी दे मौला " pada kar aaj phrir se chook chakallas ki yaad taja hogaee. sabne holi rango se kheli par aap ne to shabdoo se hi holi khel li.