गुरुवार, 14 अगस्त 2008

एक कविता

जुकाम

जुकाम जब अपने चरम पर होता है
तो नहीं सुनाई पड़ती बम की आवाज़
कानों के भीतर सांय-सांय दौड़ता है बम का सन्नाटा
किसी की मौत पर भी झनझना कर नहीं खड़े होते रोएँ
सुंदर से सुंदर स्त्री देखकर नहीं होती प्यार करने की इच्छा

काम करते हुए जब टपकती है नाक
तो लगता है संसद पर छिटक गई है
अल्पमत की साझा सरकार
उसे पोंछते हुए लगता है
सरकार दीवारों से पोंछ रही है गरीबी हटाने का नारा

सरकारों की तरह जुकाम को भी बीमारी नहीं मानते लोग
तीमारदार नहीं करते सेवा
डॉक्टर अस्पताल में भर्ती नहीं करते
ऑफिस से नहीं मिलती छुट्टी
पड़ोसी-रिश्तेदार नहीं आते देखने
बीमारियों का तिरस्कृत इलाका है जुकाम

यह राजा को भी बना देता है मेहतर
करवा लेता है शरीर के सार्वजनिक इलाकों की सफाई
भरी सभा में एक छींक से खुल जाती है
बड़े-बड़े बादशाहों की कलई

एक बार रुक जाएगा कामवेग
लेकिन छींकवेग नहीं रोक सकते ब्रम्हा भी

जुकाम से लड़ना अपनी ओकात से लड़ना है।

  • ओम द्विवेदी

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