कई दिनों से आसपास सन्नाटा पसरा हुआ है। चारों ओर भीड़ है, शोर है, रिश्ते हैं, आदमी हैं, कुदरत है, लेकिन उनसे तादात्म्य बनाने वाला बोध शायद कहीं अनुपस्थित है। कोई भी दुर्घटना दिल को ऐसा नहीं हिलाती कि आंखों से आंसुओं के बादल झर पड़ें, कोई भी खुशी इतना नहीं गुगुदाती की होठों से हँसी के सोते फूट पड़ें, कोई भी बात भीतर तक ऐसी नहीं चुभती कि आंखों में खून उतर आए।
कहीं यह आदमी से पत्थर में बदलने कि शुरुआत तो नहीं ?
कई दिन हो गए आँखें केवल दृश्य देखती हैं, कई दिन हो गए कान केवल शब्द सुनते हैं, कई दिन हुए नाक का काम केवल साँस लेना रह गया है, जिह्वा केवल स्वाद ले रही है, हाथ - पाँव केवल चल रहे हैं।
कई दिनों से केवल मनुष्य होने का भ्रम शेष रह गया है।
ये उदासी आख़िर कैसे बुनती है सन्नाटा, आख़िर संवेदनाओं को कैसे खाता है भीतर का शोर, जीवन का सारा उत्साह, इतना सारा प्यार कैसे एक शून्य में तब्दील हो जाता है।
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