शुक्रवार, 13 मार्च 2009

व्यंग्य - दंगा उत्सव

दंगे हमारे शहर, प्रदेश और देश का गौरव हैं। महीने-चार महीने में दमदार दंगे न हों तो पता ही नहीं चलता कि हमारी कौमें जिंदा हैं और उनका अपना धर्म भी है। जैसे सिर में दर्द होने पर सिर का बोध होता है, पिछवाड़े बालतोड़ होने पर पिछवाड़े का अहसास होता है, पेट में मरोड़ होने लगे तो ज्ञात होता है कि शरीर में पेट भी है और महबूबा दिल तोड़ दे तो पूरा मोहल्ला जान जाता है कि आपके पास एक अदद दिल भी है। दंगे इसी तरह कौमों को उनके होने का अहसास कराते हैं। पंडों और मौलवियों को सुखेन वैद्य की तरह आदर तभी तक मिलता है जब तक समाज के पेट में दंगों का दर्द होता रहे। दंगें न हों तो दुनिया में हमारे देश की पहचान समाप्त हो जाए। बीमा का एजेन्ट जिस तरह माथे पर लगे चोट के निशान को स्थाई पहचान के रूप में चिन्हित करता है, उसी तरह हमारे मुल्क की स्थाई पहचान भी दंगों के रूप में होती है।

दंगे शांति और स्वाभिमान की रक्षा के लिए होते हैं। प्यार बचाने और बढ़ाने के लिए होते हैं। धर्म की रक्षा के लिए तो होते ही हैं। एक धर्म को मानने वाला अगर दूसरे धर्म में खोट देख ले तो धर्म तत्काल खतरे में आ जाता है। जब धर्म खतरे में हो तब धार्मिक लोग भला कैसे बैठ सकते हैं? अपनी-अपनी तलवारें निकालकर कूद पड़ते हैं धर्मक्षेत्र में। एक मजहब की लड़की को अगर दूसरे मजहब के लड़के से इश्क हो जाए तो मानिए कि प्यार खतरे में है। ऐसी स्थिति में प्यार की रक्षा के लिए दंगों को अवतार लेना पड़ता है। इन्हें आप क्षणभर के लिए नकली दंगा कह सकते हैं, लेकिन जब सरकार खतरे में आती है तब पूरी तरह चौबीस कैरेट शुद्ध दंगे होते हैं। जिस तरह माखन चुराने वाले कान्हा ने द्रौपदी की लाज बचाई थी, दंगे सरकार की लाज बचाते हैं, उसकी इज्जत ढक लेते हैं। सरकार गिरते-गिरते रह जाती है और अगले चुनाव की भैंस को हांकने के लिए मजबूत लाठी मिल जाती है।

दंगे का अर्थ है कि देखने-सुनने वाला दंग रह जाए। दंगा उत्सव सिद्धांत के अनुसार पहले किसी उत्सव को दंगे में परिवर्तित किया जाता है, फ़िर कालांतर में दंगे को ही उत्सव बना दिया जाता है। बिना दंगे के उत्सव श्रीहीन और शोभहीन रहते हैं।

दंगे होने के बाद ही यह लगता है कि शहर में पुलिस भी है। थानों में सोती पुलिस वर्दी और बंदूक धारण कर तभी सड़क पर खड़ी होती है, जब उसे दंगे की सुगबुगाहट मिलती है और शहर का नाम बदलकर धारा 144 वगैरह कर दिया जाता है। उसी समय उसे अपनी शक्ति का अहसास होता है। जामवंत जी ने हनुमानजी को उनकी शक्ति याद दिलाई थी और वे समुद्र में कूद गए थे। दंगे पुलिस को उसकी शक्ति याद दिलाते हैं और वे पीटने-कूदने पर उतारू हो जाते हैं। दंगे कभी-कभी स्वयं हनुमान की भूमिका भी अदा करते हैं। पूछ में आग लगाकर लंका फूंक देते हैं।

सरकारों ने जबसे दंगे का महत्व समझा है, तबसे दंगा विशेषज्ञों को सरकारी संरक्षण मिलने लगा है। जो लोग बिना किसी वजह के दंगा करवा दें, उन्हें एक्सपर्ट के रूप में सरकार मदद मुहैया कराती है। कुछ विदेशी विशेषज्ञ भी गुपचुप तरीके से देश मंे दंगों का प्रशिक्षण दे रहे हैं। सरकार यह जानती है कि कलात्मक दंगों में निपुण लोग चुनाव के समय बूथ कैप्चरिंग वगैरह कर सकते हैं और खाली समय में अलग-अलग धर्मों के स्वाभिमान की रक्षा कर सकते हैं।

दंगे कभी-कभी क्रांति का भ्रम भी बनाते हैं। वे जब हो रहे होते हैं तो लगता है क्रांति हो रही है। वस्तुत: यह क्रांति को मारने का सुनियोजित प्रयास होता है। लोग रोटी के लिए न लड़ें इसलिए धर्म के लिए लड़ा दिया जाता है। वे यह जानते हैं कि क्रांति सत्ता को पलटने के लिए होती है और दंगे सत्ता की रक्षा के लिए। उनकी सत्ता न पलटे इसलिए वे दंगे को क्रांति का सम्मान देते हैं। उन्हें यह भी जानना होगा कि जब दंगाइयों का पेट एक-दूसरे को मारकर भर जाता है तो वे अगला हमला कुरसी पर ही बोलते हैं।

-ओम द्विवेदी

गुरुवार, 12 मार्च 2009

व्यंग्य-रंगों को पानी दे मौला

ज्ञानचंद से भगवान बचाए। मिल गए कि ज्ञान देकर ही मानेंगे। आप लाख उनके ज्ञान को धूल की तरह झाड़ते रहिए, वे बिना दिए नहीं मानेंगे। उनके पिटारे में मौसम, समय और परिस्थिति के अनुकूल ज्ञान तैयार रहता है। होली का मौसम देख बंदे के ऊपर झट से एक ज्ञान उन्होंने चिपका दिया कि शहर में पानी की बहुत कमी है, इसलिए इस साल होली बिना पानी के खेलें। जैसे होली न हो गिल्ली-डंडे का खेल हो। वहाँ तक जाने में उनके दिमाग का दम फूल गया होगा वरना वे यह भी कह सकते थे कि धरती पर पेड़ों की कमी हो गई है अत: क्रिकेट बिना बल्ले के और लड़कियों की कमी है इसलिए शादी बिना लड़कियों के करो। चुनाव भी बिना वोट के करो। रंगों को क्या तुम्हारे आँसुओं में घोलकर लाल करें ज्ञानचंद जी! अच्छा हुआ ज्ञानचंद जी ने यह अकल 'बरसाने में नहीं दी, नहीं तो अब तक गोपियों की सारी लाठियाँ तड़ातड़ इन्हीं के सिर पर गिर गई होतीं। ज्ञान दे-देकर पहले तो धरती का सारा पानी चूस लिया, अब होली का सनातन खेल पचाने में लगे हैं।

होली आई है तो रंग खेलेंगे, पानी में घोल-घोलकर खेलेंगे, पिचकारी मारेंगे-पिचकारा मारेंगे। अपने घर में बोरिंग भी है और नलों में पानी भी खूब आता है। तुम प्यासे मर रहे तो चार ठो कंचा खरीद लो और घर के भीतर खेलो, बाहर निकले तो तुम्हारा भी मुँह पोत देंगे। अरे सूखे गोबर के ढेले! भागीरथ स्वर्ग से गंगा तुम्हारे मुँह में डालकर मोक्ष देने के लिए नहीं, हमारे रंग घोलने और रंग धोने के लिए ही लाए हैं। हमारी होली का रंग घोलने के लिए ही नर्मदा मइया मगरमच्छ पर सवार होकर दौड़ी चली आई हैं। नदिया में रहकर भी अगर मच्छी पानी-पानी चिल्ला रही है तो जा एक रुपया का पाउच खरीद, उससे गला तर कर, फिर कहीं दूसरा ज्ञान बाँट।

तुमने सारे तालाब खा लिए, कुए-बावड़ी में अपना पाप डाल दिया, नदियों को नाला कर दिया, तब पानी-पानी नहीं रोये...अब हमारी गेर देखकर तुम्हारा कलेजा खाक हुआ जा रहा है। रंगों के बहाने थोड़ा भंग की तरंग चढ़ती है, गोरी के गाल पर गुलाल लग जाता है, दुश्मनी मोहब्बत-मोहब्बत खेल लेती है, दिल फाग में झूम लेता है... तो तुम जले-भुने जा रहे हो। दिल को दरिया न सही बाल्टी करो और बाहर निकलकर रंगबाजों को एकाध बाल्टी पानी दो, वरना वे तुम्हें चुल्लूभर पानी देकर चले जाएँगे और गेर खेलकर लौटेंगे तो पूछेंगे-'डूबे कि नहीं। ज्ञानचंद, सूखा रंग किससे-किससे खिलवाओगे? नगर निगम सालभर सूखा रंग ही खेलता है। सड़क खोदकर सबके गालों पर रात-दिन धूल की मालिश करता है। सूखे का ज्यादा शौक है तो मुँह खोलकर चौराहे पर खड़े जो जाओ, शाम तक उससे ट्रॉलीभर मिट्टी निकल आएगी। मितव्ययिता के महानायक! पानी की इतनी ही बचत करनी है तो आज से पाखाना साफ करने, कपड़े धोने और दाँत साफ करने जैसे निकृष्ट कार्य से मुक्ति प्राप्त करो। मरे कुत्ते जैसा जब गंधाओगे तो मोहल्लेवाले तुम्हारे बचत बैंक में दो-दो बूँद पानी डाल जाएँगे।

एक बात है ज्ञानचंद, तू जिसको भी बचाने में लगा उसका सफाया हुआ। बिजली बचाया तो देश अँधेरे में, इंसानियत बचाई तो सब जगह खून बहा, न्याय बचाया तो अन्याय फला-फूला, लोकतंत्र बचाया तो राजतंत्र बच गया, पूरब बचाते-बचाते पश्चिम बच गया और रोटी बचाया तो बाजार बच गया। अब पानी बचाने में लगे हो, तय है प्यास बचेगी।

अरे ज्ञानचंद! तुम तो बुरा मान गए। यही तो होली है। जब रंग ताने मारें और तानों से रंग निकले। बुरा माने की होली की मिठाई में कंकड़ पड़ा। अपुन को भी धरती प्यारी है, भला उसका 'पानी कैसे उतरने देंगे।
-ओम द्विवेदी

बुधवार, 21 जनवरी 2009

ओबामा त्रिशूल

ओबामा है जप रहा , अब तो सारा देश.
जैसे वे ही हरेंगे, अपना सारा क्लेश.

कल तक चमड़ी श्वेत थी, और काला था राज.
हो गए दोनों एक से, फिर भी करते नाज.

सिंहासन पर बैठकर, काग सुनाता मंत्र.
दुनिया का सुख छीनकर, हँसता है जनतंत्र

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

या तो मारो या फिर मरो

वे आए थे हमारा ताज जलाने और जला कर चले गए। उसके बाद से हम माथा और छाती पीट रहे हैं। पडोसी देश पर दबाव बनाने का ढोल भी लगातार पीटे जा रहे हैं लेकिन हाथ कुछ नहीं आ रहा है। सांप निकल गया और लकीर बची है सो उसे धुने पडे हैं। हमारी पीढी यही देखकर और भुगतकर बडी तथा बूढी हो रही है। जब अमेरिका कहता है कि हम अब सारी दुनिया से आतंक का अंत कर देंगे तो हम फूलकर कुप्पा हो जाते हैं कि कोई तारणहार आ रहा है। इसी बहाने हमारी मुसीबतों का संहार भी हो जाएगा। आज तक तो ऐसा नहीं हुआ और न ही निकट भविष्य में ऐसी उम्मीद नजर आती।

फिर विकल्प क्या है। या तो हम अपने ताज के लिए अपनी लडाई स्वयं लडें या फिर यह सारा अपमान और संहार सहें। किसी और का कंधा जब तक हम बंदूक रखने के लिए तलाशते रहेंगे हमारे सीने में दुश्मन की गोलियां लगती रहेंगी। कूटनीति और जन पंचायत से काम तब तक लिया जाता है जब तक उसे मानने के लिए दुश्मन के पास जमीर हो। अब इन कोशिशों से आगे बढकर हाथ में हथियार उठाना पडेगा और सीमा पर गरजना पडेगा। वायुसेना को उन ठिकानों को तलाशना पडेगा जो हमारे लिए मुसीबत का सबब बने हुए हैं।

यह सब अभी करना होगा। यदि हम ऐसा नहीं करते तो दुश्मन को यह मानने मे कतई देरी नहीं लगेगी कि हमारी बंदूकों के साथ हमारी आत्मा में भी जंग लग चुकी है। केवल दुश्मन ही नहीं वरन हमारे अपने देश के लोग भी यही सोचेंगे और सरकार की नपुंसकता मुल्क की नपुंसकता मानने लगेंगे।

सवाल अगर सामने है तो जवाब अभी देना होगा। अभी नहीं तो कभी नहीं।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

दोहा पंचामृत

जिसकी-जिसकी पीठ पर, पड़ी समय की मार।
दर- दर ढूढे जिंदगी, करता चीख-पुकार।


पग- पग पर फैला यहाँ, ईश्वर का विस्तार।
छोटी-छोटी आंख में, सपनों का संसार।

रिश्ते धरती की तरह, घूम रहे हैं गोल।
कब किससे मिलना पड़े, बोलो मीठे बोल।

सड़क कहीं जाती नहीं, जाता है इंसान।
बिना सड़क के जो गए, होते गए महान।

सिंहासन कितने हिले, गिरे कई प्रासाद।
दायर जब करना पडा, आहों को प्रतिवाद।
  • ओम द्विवेदी

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

दोहा त्रिशूल

भिखमंगे से आ गए, कल तक जो थे नाथ।
बना दिया है वोट ने, जनम - जनम का साथ।

जनता आंसू खून के, रोई सालोंसाल।

पड़ा वोट का काम तो, लेकर चले रुमाल।

घूर- घूर कर देखते, इन्हें गांव के लोग।

पाँच साल के लिए फिर, होना वही वियोग।

  • ओम द्विवेदी

बुधवार, 5 नवंबर 2008

खतरनाक संकेत

मालेगाँव ब्लास्ट मामले में सेना के कर्नल का गिरफ्तार होना भयावह भविष्य की ओर संकेत करता है। इस्लामी दहशत के खिलाफ सरकारों का मौन और टालने की प्रवित्ति ने हिंदू मानस को झकझोरना शुरू कर दिया है। यह चिंगारी किस हद तक भीतर-भीतर सुलग रही है, इसका अंदाजा इस एक घटना से लगाया जा सकता है।

सेना के जिन जवानों को देशभक्ति और देश पर मर मिटने के लिए जाना जाता है, उसका नाम विध्वंश के साथ जुड़ने का मतलब है कि भारतीय संविधान और दिखावटी भाईचारे के खिलाफ बगावत शुरू हो गई है। धर्म आधारित राज्य बनाने का पांचजन्य कभी भी सुने दे सकता है।

चुनावों में धर्म और जाति के आधार पर टिकट बांटने वालों, परदे के पीछे से देश की संसद और विधानसभाओं को दंगों की चौपाटी बनाने वालों तथा समाज में खुलेआम हिंदू- मुसलमान का जहर घोलने वालों के खिलाफ कभी भी फूट पड़ने वाला ज्वालामुखी है यह।

इस्लामी आतंकवाद का मैदानी जवाब देने के लिए हिंदू आतंकवाद की पुख्ता शुरुआत है यह। सेना में राष्ट्रवादी सोच की राजनीतिक हवा का प्रवेश है।

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की तरह हमारी सेना को भी धर्म और सत्ता की परवाह हो, इसके पहले जनता और नेता दोनों की आँख खुलनी चाहिए। जिस भाईचारे और नैतिक मूल्यों को भाषणों और किताबों की शोभा बना दिया गया है, उसे अमल में भी लाना होगा। प्रार्थना और अजान को गले मिलना होगा। लाल और हरे रंग का दंगा कराने वालों सावधान! ब्लास्ट तुम्हारे घर में भी हो सकता है।